Tuesday, 29 December 2015

अटल बिहारी वाजपेयी-(राह कौन सी जाऊँ मैं?)

चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'---(यह शहर)

ति‍नका ति‍नका जोड़ रहा
मानव यहाँ शाम-सहर।
आतंकी साये में पीता
हालाहल यह शहर।

अनजानी सुख की चाहत
संवेदनहीन ज़मीर
इंद्रधनुषी अभि‍लाषायें
बि‍न प्रत्‍यंचा बि‍न तीर
महानगर के चक्रव्‍यूह में
अभि‍मन्‍यु सा वीर
आँखों की कि‍रकि‍री बने
अपना ही कोई सगीर
क़दम क़दम संघर्ष जि‍जीवि‍षा का
दंगल यह शहर।

ढूँढ़ रहा है वो कोना जहाँ
कुछ तो हो एकांत
है उधेड़बुन में हर कोई
पग-पग पर है अशांत
सड़क और फुटपाथ सदा
सहते अति‍क्रम का बोझ
बि‍जली के तारों के झूले
करते तांडव रोज
संजाल बना जंजाल नगर का
कोलाहल यह शहर।

दि‍नकर ने चेहरे की रौनक
दौड़धूप ने अपनापन
लूटा है सबने मि‍लकर
मि‍ट्टी के माधो का धन
पर्णकुटी से गगनचुंबी का
अथक यात्रा सम्‍मोहन
पाँच सि‍तारा चकाचौंध ने
झौंक दि‍या सब मय धड़कन
हृदयहीन एकाकी का है
राजमहल यह शहर।

Thursday, 10 December 2015

कुँअर बेचैन--(ये लफ्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल)

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल,
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल ।

कहे जो तुझसे उसे सुन, अमल भी कर उस पर,
ग़ज़ल की बात है उसको न ऐसे टाल के चल ।

सभी के काम में आएँगे वक़्त पड़ने पर,
तू अपने सारे तजुर्बे ग़ज़ल में ढाल के चल ।

मिली है ज़िन्दगी तुझको इसी ही मकसद से,
सँभाल खुद को भी औरों को भी सँभाल के चल ।

कि उसके दर पे बिना माँगे सब ही मिलता है,
चला है रब कि तरफ़ तो बिना सवाल के चल ।

अगर ये पाँव में होते तो चल भी सकता था,
ये शूल दिल में चुभे हैं इन्हें निकाल के चल ।

तुझे भी चाह उजाले कि है, मुझे भी 'कुँअर'
बुझे चिराग कहीं हों तो उनको बाल के चल ।

कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'--(मानुष जन्म महा दुखदाई)

मानुष जन्म महा दुखदाई ।
सुख नहिं पावत धनी रंक कोउ कोटिन किये उपाई ।
रोग सदन यह तन मल पूरे छन में जात नसाई ॥
आशा चक्र बँधे बिन मारग दिवस रैनि भरमाई ।
पापिनि शापिनि चिन्ता व्यापे घेरि डसत नित आई ।
विषै से सुखत देह और जग कन्टक सम दरसाई ॥
मातु पिता दारा सुत दुहिता मित्र बन्धु गण भाई ।
खान पान लागत नहिं नीको प्रिय अप्रिय भय जाई ॥
हरि स्तुति के सार एकही माया जाल छोड़ाई ।
भजहु ‘सरोज’ नन्द नन्दन पद त्यागि कपट कुटिलाई ॥

Monday, 7 December 2015

रामधारी सिंह "दिनकर"---(वसन्त के नाम पर)

१.
प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।

सुन्दरता को जगी देखकर,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

ठोकर मार भाग्य को फोडूँ
जड़ जीवन तज कर उड़ जाऊॅं;
उतरी कभी न भू पर जो छवि,
जग को उसका रूप दिखाऊॅं।

स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो उसे सत्य में व्याप्त करूँ।
और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।

२.

कलम उठी कविता लिखने को,
अन्तस्तल में ज्वार उठा रे!
सहसा नाम पकड़ कायर का
पश्चिम पवन पुकार उठा रे!

देखा, शून्य कुँवर का गढ़ है,
झॉंसी की वह शान नहीं है;
दुर्गादास - प्रताप बली का,
प्यारा राजस्थान नहीं है।

जलती नहीं चिता जौहर की,
मुटठी में बलिदान नहीं है;
टेढ़ी मूँछ लिये रण - वन,
फिरना अब तो आसान नहीं है।

समय माँगता मूल्य मुक्ति का,
देगा कौन मांस की बोटी?
पर्वत पर आदर्श मिलेगा,
खायें, चलो घास की रोटी।

चढ़े अश्व पर सेंक रहे रोटी नीचे कर भालों को,
खोज रहा मेवाड़ आज फिर उन अल्हड़ मतवालों को।

३.

बात-बात पर बजीं किरीचें,
जूझ मरे क्षत्रिय खेतों में,
जौहर की जलती चिनगारी
अब भी चमक रही रेतों में।

जाग-जाग ओ थार, बता दे
कण-कण चमक रहा क्यों तेरा?
बता रंच भर ठौर कहाँ वह,
जिस पर शोणित बहा न मेरा?

पी-पी खून आग बढ़ती थी,
सदियों जली होम की ज्वाला;
हॅंस-हॅंस चढ़े सीस, आहुति में
बलिदानों का हुआ उजाला।

सुन्दरियों को सौंप अग्नि पर निकले समय-पुकारों पर,
बाल, वृद्ध औ तरुण विहॅंसते खेल गए तलवारों पर।

४.

हाँ, वसन्त की सरस घड़ी है,
जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;
कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में
निज कविता के दीप जलाऊॅं।

क्या गाऊॅं? सतलज रोती है,
हाय! खिलीं बेलियाँ किनारे।
भूल गए ऋतुपति, बहते हैं,
यहाँ रुधिर के दिव्य पनारे।

बहनें चीख रहीं रावी-तट,
बिलख रहे बच्चे मतवारे;
फूल-फूल से पूछ रहे हैं,
कब लौटेंगे पिता हमारे?

उफ? वसन्त या मदन-बाण है?
वन-वन रूप-ज्वार आया है।
सिहर रही वसुधा रह-रह कर,
यौवन में उभार आया है।

कसक रही सुन्दरी-आज मधु-ऋतु में मेरे कन्त कहाँ?
दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती-प्यारी, और वसन्त कहाँ?

महेश चंद्र 'नक्श'--(तस्वीर-ए-ज़िंदगी में रंग भर गए)

तस्वीर-ए-ज़िंदगी में रंग भर गए
वो हासदे जो दिल पे हमारे गुज़र गए

दुनिया से हट के इक नई दुनिया बना सकें
कुछ अहल-ए-आरज़ू इसी हसरत में मर गए

निकला जो क़ाफ़िले से नई जुस्तुजू लिए
कुछ दूर साथ साथ मेरे राह-बर गए

नैरंगियाँ चमन की पशेमान हो गईं
रूख़ पर किसी के आज जो गेसू बिखर गए

फूटी जो उस जबीं से इनायत की इक किरन
मग़मूम आरज़ुओं के चेहरे निखर गए

हर शय से बे-नियाज़ रहे जिन में हुस्न ओ इश्क़
ऐ ज़िंदगी बता के वो लम्हे किधर गए

ऐ ‘नक्श’ कर रहा था जिन्हें ग़र्क़ ना-ख़ुदा
तूफ़ाँ के जोर से वो सफ़ीने उभर गए

Wednesday, 2 December 2015

अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’-(अब ’अमित’ अन्जुमन से जाते हैं0

बाइसे-शौक आजमाते हैं
कितने मज़बूत अपने नाते हैं

रोज़ कश्ती सवाँरता हूँ मैं
कुछ नये छेद हो ही जाते हैं

बाकलमख़ुद बयान था मेरा
अब हवाले कहीं से आते हैं

जिनपे था सख़्त ऐतराज़ उन्हे
उन्हीं नग़्मों को गुनगुनाते हैं

शम्मये-बज़्म ने रुख़ मोड़ लिया
अब ’अमित’ अन्जुमन से जाते हैं

 
बाइसे-शौक = शौक के लिये,

'अफसर' इलाहाबादी--(वही जो हया थी निगार आते आते)

वही जो हया थी निगार आते आते
 बता तू ही अब है वो प्यार आते आते

 न मक़्तल में चल सकती थी तेग़-ए-क़ातिल
 भरे इतने उम्मीद-वार आते आते

 घटी मेरी रोज़ आने जाने से इज़्ज़त
 यहाँ आप खोया वक़ार आते आते

 जगह दो तो मैं उस में तुर्बत बना लूँ
 भरा है जो दिल में ग़ुबार आते आते

 अभी हो ये फ़ितना तो क्या कुछ न होगे
 जवानी के लैल ओ नहार आते आते

 घड़ी हिज्र की काश या रब न आती
 क़यामत के लैल ओ नहार आते आते

 ख़बर देती है याद करता है कोई
 जो बाँधा है हिचकी ने तार आते आते

 फिर आए जो तुम मेहरबाँ जाते जाते
 फिरी गर्दिश-ए-रोज़-गार आते आते

 अज़ल से आबाद को तो जाना था 'अफ़सर'
 चले आए हम उस दयार आते आते