Sunday, 8 May 2016

जयकृष्ण राय तुषार--(हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे)

कोई पूजा में रहे कोई अजानों में रहे
हर कोई अपने इबादत के ठिकानों में रहे

अब फिजाओं में न दहशत हो, न चीखें, न लहू
अम्न का जलता दिया सबके मकानों में रहे

ऐ मेरे मुल्क मेरा ईमां बचाये रखना
कोई अफवाह की आवाज न कानों में रहे

मेरे अशआर मेरे मुल्क की पहचान बनें
कोई रहमान मेरे कौमी तरानें में रहे

बाज के पंजों न ही जाल, बहेलियों से डरे
ये परिन्दे तो हमेशा ही उड़ानों में रहे

हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे
चाभियों वाले बहुत ऊंचे घरानों में रहे

वो तो इक शेर था जंगल से खुले में आया
ये शिकारी तो हमेशा ही मचानों में रहे।

अहमद नदीम क़ासमी---(लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा)

लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा
राज़ हर रंग में रुस्वा होगा

दिल के सहरा में चली सर्द हवा
अबर् गुलज़ार पर बरसा होगा

तुम नहीं थे तो सर-ए-बाम-ए-ख़याल
याद का कोई सितारा होगा

किस तवक्क़ो पे किसी को देखें
कोई तुम से भी हसीं क्या होगा

ज़ीनत-ए-हल्क़ा-ए-आग़ोश बनो
दूर बैठोगे तो चर्चा होगा

ज़ुल्मत-ए-शब में भी शर्माते हो
दर्द चमकेगा तो फिर क्या होगा

जिस भी फ़नकार का शाहकार हो तुम
उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा

किस क़दर कबर् से चटकी है कली
शाख़ से गुल कोई टूटा होगा

उमर् भर रोए फ़क़त इस धुन में
रात भीगी तो उजाला होगा

सारी दुनिया हमें पहचानती है
कोई हम-स भी न तन्हा होगा

कृष्ण शलभ--(है चाहता बस मन तुम्हें)

शीतल पवन, गंधित भुवन
आनन्द का वातावरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

शतदल खिले भौंरे जगे
मकरन्द फूलों से भरे
हर फूल पर तितली झुकी
बौछार चुम्बन की करे
सब ओर मादक अस्फुरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

संझा हुई सपने जगे
बाती जगी दीपक जला
टूटे बदन घेरे मदन
है चक्र रतिरथ का चला
कितने गिनाऊँ उद्धरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

नीलाभ जल की झील में
राका नहाती निर्वसन
सब देख कर मदहोश हैं
उन्मत्त चाँदी का बदन
रसरंग का है निर्झरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

कृष्ण कुमार ‘नाज़’--(एहसास की शिद्दत ही सिमट जाए तो अच्छा)


एहसास की शिद्दत ही सिमट जाए तो अच्छा
ये रात भी आँखों ही में कट जाए तो अच्छा

कश्ती ने किनारे का पता ढूँढ लिया है
तूफ़ान से कहदो कि पलट जाए तो अच्छा

शाख़ों पे खिले फूल यही सोच रहे हैं
तितली जो कोई आके लिपट जाए तो अच्छा

जिस नींद की बाँहों में न तू हो, न तेरे ख़्वाब
वो नींद ही आँखों से उचट जाए तो अच्छा

अब तक तो मुक़द्दर ने मेरा साथ दिया है
बाक़ी भी अगर चैन से कट जाए तो अच्छा

ख़ुद से भी मुलाक़ात ज़रूरी है बहुत ‘नाज़’
यादों की घनी भीड़ जो छट जाए तो अच्छा

कृष्ण कुमार ‘नाज़’--(वफ़ा भी, प्यार भी, नफरत भी, बदगुमानी भी)


वफ़ा भी, प्यार भी, नफरत भी, बदगुमानी भी
है सबकी तह में हक़ीक़त भी और कहानी भी

जलो तो यूँ कि हर इक सिम्त रोशनी हो जाय
बुझो तो यूँ कि न बाक़ी रहे निशानी भी

ये ज़िंदगी है कि शतरंज की कोई बाज़ी
ज़रा-सी चूक से पड़ती है मात खानी भी

किसी की जीत का मतलब हुआ किसी की हार
बड़ा अजीब तमाशा है ज़िंदगानी भी

उन आँसुओं का समंदर है मेरी आँखों में
जिन आँसुओं में है ठहराव भी, रवानी भी

दवा की फेंकी हुई ख़ाली शीशियों की तरह
है रास्तों की अमानत मेरी कहानी भी

महानगर है ये, सब कुछ यहाँ पे मुमकिन है
यहाँ बुढ़ापे-सी लगती है नौजवानी भी

हैं चंद रोज़ के मेहमान हम सभी ऐ ‘नाज़’
हमीं को करनी है ख़ुद अपनी मेज़बानी भी

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'----(पानी पानी पानी)

पानी पानी पानी,
अमृतधारा सा पानी
बि‍न पानी सब सूना सूना
हर सुख का रस पानी

पावस देख पपीहा बोल
दादुर भी टर्राये
मेह आओ ये मोर बुलाये
बादर घि‍र-घि‍र आये
मेघ बजे नाचे बि‍जुरी
और गाये कोयल रानी।

रुत बरखा की प्रीत सुहानी
भेजा पवन झकोरा
द्रुमदल झूमे फैली सुरभि‍
मेघ बजे घनघोरा
गगन समन्‍दर ले आया
धरती को देने पानी।

बाँध भरे नदि‍या भी छलकीं
खेत उगाये सोना
बाग बगीचे,हरे भरे
धरती पर हरा बि‍छौना
मन हुलसे पुलकि‍त तन झंकृत
खुशी मि‍ली अनजानी।

उपवन कानन ताल तलैया
थे सूखे दि‍ल धड़कें
जाता सावन ज्‍योंही लौटा
सबकी भीगी पलकें
क्‍या बच्‍चे क्‍या बूढे नाचे
सब पर चढ़ी जवानी।

पानी पानी पानी।

रामधारी सिंह "दिनकर"--(रोटी और स्वाधीनता )

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?

झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी