Friday, 31 July 2015

आनन्दी सहाय शुक्ल---(ऊधो इस युग में क्या गाएँ)

                                         (PAINTING-BY -LEONID AFREMOV )


 ऊधो इस युग में क्या गाएँ।
औरंगजेब अयातुल्ला ये गाता कण्ठ दबाएँ।।

हथकड़ियाँ बेड़ी औ’ कोड़े
दुर्लभ तोहफ़े पाएँ
छन्द गीत के हत्यारे अब
रचनाकार कहाएँ

राजनीति के तलुवे चाटें
कीर्ति-किरीट लगाएँ
जीवन-दर्शन बहस चलाना
मुद्दे रोज़ उठाएँ

जिह्वशूर बुद्धिजीवी ये
संस्कृति पार लगाएँ
गाते-गाते मरे निराला
पागल ही कहलाएँ

सुविधाजीवी छद्म-मुखौटे
मठाधीश बन जाएँ
भूखा बचपन तृषित जवानी
तन-मन बलि समिधाएँ

छुप-अनछुए दर्द-द्रवित हैं
कातर प्राण नहाएँ
चारों ओर ठगों के डेरे इनसे गाँठ बचाएँ ।।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’---(जन्‍मभूमि0

सुरसरि सी सरि है कहाँ मेरु सुमेर समान।
जन्मभूमि सी भू नहीं भूमण्डल में आन।।

प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।।

पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।
मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।।

आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।
जन्मभूमि जल जात के बने रहे जन भौंर।।

कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।
जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।।

उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।
सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।।

उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।
जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।।

योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।
सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।।

फलद कल्पतरू–तुल्य हैं सारे विटप बबूल।
हरि–पद–रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।।

जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।
अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।।

Thursday, 30 July 2015

कबीरदास---( दोहे )


गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥

जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥

गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

री गुरुस्तोत्रम्: गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर


गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥


 अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥


 अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशालाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥


 स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम्
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥४॥


Sunday, 26 July 2015

अमीर खुसरो---(सूफ़ी)

रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।
जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।।

खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।

चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय।
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।।

खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।

खुसरवा दर इश्क बाजी कम जि हिन्दू जन माबाश।
कज़ बराए मुर्दा मा सोज़द जान-ए-खेस रा।।

उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।।

श्याम सेत गोरी लिए जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात है जोगी काके मीत।।

पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव।
मुझ जलती का जनम गयो तेरे लेखन भाव।।

नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।

साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन।
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।।

रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।

अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस।
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।।

आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ।
न मैं देखूँ और न को, न तोहे देखन दूँ।

अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई।
जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।

खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।

संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत।
वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।।

खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन।
कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।।

अमिता प्रजापति---(मिट्टी)

मैं थी
शुष्क बिखरी पड़ी मिट्टी
फिर तुम आए
तुमने मुझे सींचा
मैं महक उठी
तुमने मुझे साना
और मुझमें लोच आ गया
मैं तुमसे नित नया
आकार पाती रही
और आदी होती गई
तुम्हारे द्वारा आकारित होने की
तुम्हारा दिया
यह लोच और यह नमी ही
मुझे राजी रखते हैं
और प्रस्तुत रखते हैं
तुम्हारे स्पर्श से मिलने वाले
हर नए आकार के लिए
 जब माना है
ख़ुद को मिट्टी
तो सहना होगा जड़ों का उलझाव
साधना होगा पेड़ को भी
भेजना होगा जीवन का सत्व
पेड़ की शिराओं तक
सूरज का क्या है
आज चमका कल न चमका
पर तुम्हारी शिथिलता क्या उचित है
जब तुम बुलाओगी धरती बन आकाश को
वो भी दौड़ा चला आएगा बरसने को
तो जब मिट्टी हो
फिर यह ऎंठन कैसी
अपनी लोच कायम रखो
बनाए रखो अपना सौंधापन

Friday, 24 July 2015

आनंद नारायण मुल्ला---(हूँ मैं परवाना मगर)

हूँ मैं परवाना मगर शम्मा तो हो रात तो हो
जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो

दिल भी हाज़िर सर-ए-तसलीम भी ख़म को मौजूद
कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो

दिल तो बे-चैन है इज़्हार-ए-इरादत के लिए
किसी जानिब से कुछ इज़्हार-ए-करामात तो हो

दिल-कुशा बादा-ए-साफ़ी का किसे ज़ौक़ नहीं
बातिन-अफ़रोज़ कोई पीर-ए-ख़राबात तो हो

गुफ़्तनी है दिल-ए-पुर-दर्द का क़िस्सा लेकिन
किस से कहिए कोई मुस्तफ़्सिर-ए-हालात तो हो

दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कौन कहे कौन सुने
बज़्म में मौक़ा-ए-इज़्हार-ए-ख़्यालात तो हो

वादे भी याद दिलाते हैं गिले भी हैं बहुत
वो दिखाई भी तो दें उन से मुलाक़ात तो हो

कोई वाइज़ नहीं फ़ितरत से बलाग़त में सिवा
मगर इंसान में कुछ फ़हम-ए-इशारात तो हो

अनुपमा त्रिपाठी---(भेद अभेद ही रह जाये)

विस्मृत नहीं होती छवि
पुनः प्रकाशवान रवि
एक स्मृति है
सुख की अनुभूति है ....!!
स्वप्न की पृष्ठभूमि में
प्रखर हुआ जीवन ...!!
कनक प्रभात उदय हुई
कंचन मन आरोचन .........!!

अतीत एक आशातीत स्वप्न सा प्रतीत होता है

पीत कमल सा खिलता
निसर्ग की रग-रग में रचा बसा
वो शाश्वत प्रेम का सत्य
उत्स संजात(उत्पन्न) करता
अंतस भाव सृजित करता
प्रभाव तरंगित करता है...!!

तब शब्दों में
प्रकृति की प्रेम पातियाँ झर झर झरें
मन ले उड़ान उड़े
जब स्वप्न कमल
प्रभास से पंखुड़ी-पंखुड़ी खिलें...!!

स्वप्न में खोयी सी
किस विध समझूँ
कौन समझाये
एक हिस्सा जीवन का
एक किस्सा मेरे मन का
स्वप्न जीवन है या
जीवन ही स्वप्न है
कौन बतलाए...?
भेद अभेद ही रह जाये ...!!

Tuesday, 21 July 2015

चाँद शुक्ला हादियाबादी---(साथ क्या लाया था मैं और साथ क्या ले जाऊँगा)

साथ क्या लाया था मैं और साथ क्या ले जाऊँगा
जिनके काम आया हूँ मैं उनकी दुआ ले जाऊँगा

ज़िंदगी काटी है मैंने अपनी मैंने सहरा के करीब
एक समुन्दर है जो साथ अपने बहा ले जाऊँगा

तेरे माथे की शिकन को मैं मिटाते मिट गया
अपने चेहरे पर मैं तेरा ग़म सजा ले जाऊँगा

जब तलक ज़िन्दा रहा बुझ-बुझ के मैं जलता रहा
शम्अ दिल में तेरी चाहत की जला ले जाऊँगा

बिन पलक झपके चकोरी-सी मुझे तकती है तू
अपनी पलकों पर तुझे मैं भी सजा ले जाऊँगा

चाँद तो है आसमाँ पर, मैं ज़मीं का `चाँद' हूँ
मैं ज़मीं को रूह में अपनी बसा ले जाऊँगा

दयानन्द 'बटोही'---(संग-ए-दर उस का हर इक दर पे)

                                                         (painting- by-picasso guernica)
संग-ए-दर उस का हर इक दर पे लगा मिलता है
 दिल को आवारा-मिज़ाजी का मज़ा मिलता है

 जो भी गुल है वो किसी पैरहन-ए-गुल पर है
 जो भी काँटा है किसी दिल में चुभा मिलता है

 शौक़ वो दाम के जो रुख़्सत-ए-परवाज़ न दे
 दिल वो ताएर के उसे यूँ भी मज़ा मिलता है

 वो जो बैठे हैं बने नासेह-ए-मुश्फ़िक़ सर पर
 कोई पूछे तो भला आप को क्या मिलता है

 हम के मायूस नहीं हैं उन्हें पा ही लेंगे
 लोग कहते हैं के ढूँडे से ख़ुदा मिलता है

 दाम-ए-तज़वीर न हो शौक़ गुलू-गीर न हो
 मय-कदा 'बटोही हमें आज खुला मिलता है

Friday, 17 July 2015

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'---(दरख्‍़त धूप को साये में)

दरख्‍़त धूप को साये में ढाल देता है
मुसाफ़ि‍र को रुकने का ख़याल देता है
पत्‍तों की ताल,हवा के सुरों में झूमती
शाख़ों पे परि‍न्‍दा आशि‍याँ डाल देता है
पुरबार हो तो देखो आशि‍क़ी का जल्‍वा
सब कुछ लुटा के यक मि‍साल देता है
मौसि‍मे ख़ि‍ज़ाँ में उसका बेख़ौफ़ वज़ूद
फ़स्‍ले बहार आने की सूरते हाल देता है
ज़मीं से जुड़ने का सबक़ सीखो दरख्‍़त से
रि‍श्‍तों को इक मक़ाम इक ज़लाल देता है
इंसान बस इतना करे तो है क़ाफ़ी
इक क़लम जमीं पे गर पाल देता है
ऐ दरख्‍़त तेरी उम्रदराज़ हो 'आकुल'
तेरे दम में मौसि‍म सदि‍याँ नि‍काल देता है

1-पुरबार-फलों से लदा पेड़, 2-मोसि‍मे ख़ि‍ज़ाँ- पतझड़ की ऋतु
3-फ़स्‍ले बहार- बसंत ऋतु, 4- मक़ाम- स्‍थान,
5-ज़लाल- साया दार जगह, 6-क़लम-पौधा, डाल
7-उम्रदराज-चि‍रायु।

कृष्ण कुमार ‘नाज़’---(झूठ है,छल है,कपट है,जंग है,तकरार है)

झूठ है,छल है,कपट है,जंग है,तकरार है सोचता रहता हूँ अक्सर क्या यही संसार है
ज़हन से उलझा हुआ है मुद्दतों से इक सवाल आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है
आज भी उससे तअल्लुक़ है उसी सूरत,मगर उसके मेरे बीच ख़ामोशी की इक दीवार है
इस तरक़्क़ी पर बहुत इतरा रहे हैं आज हम जूतियाँ सर पर रखी हैं पाँव में दस्तार है
इस बग़ीचे का मैं रखवाला हूँ,मालिक तो नहीं ये बग़ीचा फिर भी मेरे ख़ून से गुलज़ार है
बीच रस्ते से पलट जाना भी तो अच्छा नहीं अबके हिम्मत और करले,अबके बेड़ा पार है
उस किनारे किस तरह जा पाओगे ऐ ’नाज़’ तुम नाव में सूराख़ है और घुन लगी पतवार है

Wednesday, 15 July 2015

माखनलाल चतुर्वेदी--(कुंज कुटीरे यमुना तीरे)

पगली तेरा ठाट !
किया है रतनाम्बर परिधान
अपने काबू नहीं,
और यह सत्याचरण विधान !

उन्मादक मीठे सपने ये,
ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में
कालिन्दी की लहरें।

डोर खींच मत शोर मचा,
मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ
तू मानस तट की ओर ।

कौन गा उठा? अरे!
करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बन्दी हैं
वे श्यामल-गौर-शरीर।

पलकों की चिक पर
हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,
नि:श्वासें पंखे झलती हैं
उनसे मत गुंजारे;

यही व्याधि मेरी समाधि है,
यही राग है त्याग;
क्रूर तान के तीखे शर,
मत छेदे मेरे भाग।

काले अंतस्तल से छूटी
कालिन्दी की धार
पुतली की नौका पर
लायी मैं दिलदार उतार

बादबान तानी पलकों ने,
हा! यह क्या व्यापार !
कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में
छूट पड़ी पतवार !

भूली जाती हूँ अपने को,
प्यारे, मत कर शोर,
भाग नहीं, गह लेने दे,
अपने अम्बर का छोर।

अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं,
हुई बड़ी तकसीर,
धोती हूँ; जो बना चुकी
हूँ पुतली में तसवीर;

डरती हूँ दिखलायी पड़ती
तेरी उसमें बंसी
कुंज कुटीरे, यमुना तीरे
तू दिखता जदुबंसी।

अपराधी हूँ, मंजुल मूरत
ताकी, हा! क्यों ताकी?
बनमाली हमसे न धुलेगी
ऐसी बाँकी झाँकी।

अरी खोद कर मत देखे,
वे अभी पनप पाये हैं,
बड़े दिनों में खारे जल से,
कुछ अंकुर आये हैं,

पत्ती को मस्ती लाने दे,
कलिका कढ़ जाने दे,
अन्तर तर को, अन्त चीर कर,
अपनी पर आने दे,

ही-तल बेध, समस्त खेद तज,
मैं दौड़ी आऊँगी,
नील सिंधु-जल-धौत चरण
पर चढ़कर खो जाऊँगी।

आनंद कुमार द्विवेदी---(आ ज़िंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर)

आ जिंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर
या हर जबाब दे मुझे या लाजबाब कर

मैं इश्क करूंगा हज़ार बार करूंगा
तू जितना कर सके मेरा खाना खराब कर

या छीन ले नज़र कि कोई ख्वाब न पालूं
या एक काम कर कि मेरा सच ये ख्वाब कर

या मयकशी से मेरा कोई वास्ता न रख
या ऐसा नशा दे कि मुझे ही शराब कर

जा चाँद से कह दे कि मेरी छत से न गुजरे
या फिर उसे मेरी नज़र का माहताब कर

क्या जख्म था ये चाक जिगर कैसे बच गया
कर वक़्त की कटार पर तू और आब कर

खारों पे ही खिला किये है गुल, ये सच है तो
‘आनंद’ के लिए भी कोई तो गुलाब कर

Sunday, 12 July 2015

हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल'---(मन कै अँधेरिया )

मन कै अँधेरिया अँजोरिया से पूछै,

टुटही झोपड़िया महलिया से पूछै,

बदरी मा बिजुरी चमकिहैं कि नाँहीं,

का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।

   माटी हमारि है हमरै पसीना,

 कोइला निकारी चाहे काढ़ी नगीना,

   धरती कै धूरि अकास से पूछै,

   खर पतवार बतास से पूछै,

  धरती पै चन्दा उतरिहैं कि नाँहीं।

 का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।

   दुख औ दरदिया हमार है थाती,

   देहियाँ मा खून औ मासु न बाकी,

   दीन औ हीन कुरान से पूछै,

   गिरजाघर भगवान से पूछै,

   हमरौ बिहान सुधरिहैं कि नाँहीं।

…का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।

   नाँहीं मुसलमा न हिन्दू इसाई,

   दुखियै हमार बिरादर औ भाई,

   कथरी अँटरिया के साज से पूछै,

   बकरी समजवा मा बाघ से पूछै,

   एक घाटे पनिया का जुरिहैं कि नाँहीं।

  का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।

   आँखी के आगे से भरी भरी बोरी,

   मोरे खरिहनवा का लीलय तिजोरी,

   दियना कै जोति तुफान से पूछै,

   आज समय ईमान से पूछै,

   आँखी से अँधरे निहरिहैं कि नाँहीं।

  का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।

Friday, 10 July 2015

अच्युतानंद मिश्र--(रात )

रात-रात भर कविता के शब्द
रेंगते है मस्तिष्क में
नींद और जागरण की
धुँधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता
पक्षियों की कतारें
आसमान को ऊँचाइयों से
चिपकी गुज़री जाती हैं
चाँद यूँ ही
ताकता रहता है धरती को
और दोस्त लिखते रहते है कविता
नीली और गुलाबी कापियाँ
भरती जाती हैं
भरती जाती है एक रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से

सूरज की अंतड़ियों से पिघल कर
रात
बर्फ़ में तब्दील हो जाती है
मेरी तलहथियों का पसीना
सूखने लगता है
आँखों में कौंधने लगती है
सफ़ेद उदासी

और फिर
मेरे अधूरे सपनों में
रात सुलग रही होती है।
सड़े हुए पानी के
बुलबलों की तरह
स्मृतियाँ गँधाने लगती हैं ।

एक भाप-सी
उड़ती है मेरे चारों ओर
एक पत्ता खड़कता है
निस्तब्ध शांति हर ओर
जैसे पृथ्वी अचानक
भूल गई हो घूमना
जैसे दुनिया में
किसी भूकंप
किसी ज्वालामुखी के फटने
किसी समंदर के उफ़नने
किसी पहाड़ के टूटने की कोई
आंशका ही नहीं बची हो ।
डर लगता है इतनी शांति से

कोई बिल्ली ही आए
कोई चूहा ही गिरा जाए
पानी का ग्लास
कुछ, कुछ तो हिले

चीख़ते पक्षी तब्दील होने लगते हैं
इंसानों में
सूरज का रक्तिम लाल रंग
फैल जाता है आसमान में
कलियाँ गुस्से में बंद
फूलों में तब्दील नहीं होतीं ।