Sunday, 26 July 2015

अमिता प्रजापति---(मिट्टी)

मैं थी
शुष्क बिखरी पड़ी मिट्टी
फिर तुम आए
तुमने मुझे सींचा
मैं महक उठी
तुमने मुझे साना
और मुझमें लोच आ गया
मैं तुमसे नित नया
आकार पाती रही
और आदी होती गई
तुम्हारे द्वारा आकारित होने की
तुम्हारा दिया
यह लोच और यह नमी ही
मुझे राजी रखते हैं
और प्रस्तुत रखते हैं
तुम्हारे स्पर्श से मिलने वाले
हर नए आकार के लिए
 जब माना है
ख़ुद को मिट्टी
तो सहना होगा जड़ों का उलझाव
साधना होगा पेड़ को भी
भेजना होगा जीवन का सत्व
पेड़ की शिराओं तक
सूरज का क्या है
आज चमका कल न चमका
पर तुम्हारी शिथिलता क्या उचित है
जब तुम बुलाओगी धरती बन आकाश को
वो भी दौड़ा चला आएगा बरसने को
तो जब मिट्टी हो
फिर यह ऎंठन कैसी
अपनी लोच कायम रखो
बनाए रखो अपना सौंधापन

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