Saturday, 30 January 2016

मुरारीलाल शर्मा 'बालबंधु'---(शक्ति हमें दो)

वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्य मार्ग पर डट जावें!
पर-सेवा पर-उपकार में हम, जग-जीवन सफल बना जावें!

हम दीन-हीन निबलों-विकलों के सेवक बन संताप हरें!
जो हैं अटके, भूले-भटके, उनको तारें खुद तर जावें!

छल, दंभ-द्वेष, पाखंड-झूठ, अन्याय से निशिदिन दूर रहें!
जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम-सुधा रस बरसावें!

निज आन-बान, मर्यादा का प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे!
जिस देश-जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें!

कैफ़ी आज़मी--(शोर यूँ ही न परिंदों ने मचाया होगा )

शोर यूँ ही न परिंदों[1] ने मचाया होगा,
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा।

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था,
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा।

बानी-ए-जश्ने-बहाराँ[2] ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काटों को लहू अपना पिलाया होगा।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे,
ये सराब[3] उन को समंदर नज़र आया होगा।

बिजली के तार पर बैठा हुआ तनहा पंछी,
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।
शब्दार्थ:
1-पक्षियों
2-वसन्तोत्सव के प्रेरणा स्रोतों
3-धोखा

Monday, 25 January 2016

रामधारी सिंह दिनकर-(कलम, आज उनकी जय बोल)

जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफ़ानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

अभिषेक मिश्र--(तब विद्रोह जरुरी है)

जब सूरज संग हो जाए अंधियार के, तब दीये का टिमटिमाना जरूरी है…
जब प्यार की बोली लगने लगे बाजार में, तब प्रेमी का प्रेम को बचाना जरूरी है……

जब देश को खतरा हो गद्दारों से, तो गद्दारों को धरती से मिटाना जरूरी है….
जब गुमराह हो रहा हो युवा देश का, तो उसे सही राह दिखाना जरूरी है………..

जब हर ओर फैल गई हो निराशा देश में, तो क्रांति का बिगुल बजाना जरूरी है…..
जब नारी खुद को असहाय पाए, तो उसे लक्ष्मीबाई बनाना जरूरी है…………

जब  देश सुरक्षित न रहे, तो फिर सुभाष का आना जरूरी है……
जब सीधे तरीकों से देश न बदले, तब विद्रोह जरूरी है……………..

ऋषभदेव शर्मा ---(भारत माता का जयगान)


दिशा-दिशा में गूँज रहा है, भारत माता का जयगान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

यहाँ सृष्टि के आदि काल में, समता का सूरज चमका,
करुणा की किरणों से खिलकर, धरती का मुखड़ा दमका!
सुनो! मनुजता को हमने ही, आत्म त्याग सिखलाया है,
लालच और लोभ को तजकर, पाठ पढ़ाया संयम का!!

जो जग के कण-कण में रहता, सब प्राणी उसकी संतान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

रहें कहीं हम लेकिन शीतल, मंद सुगंधें खींच रहीं
यह धरती अपनी बाहों में, परम प्रेम से भींच रही!
सारे धर्मों, सभी जातियों, सब रंगों, सब नस्लों को,
ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गंगा, कृष्णा, झेलम सींच रहीं!!

ऊँच नीच का भेद नहीं कुछ, सद्गुण का होता सम्मान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

हमने सदा न्याय के हक़ में, ही आवाज़ उठाई है,
अपनी जान हथेली पर ले, अपनी बात निभाई है!
पुरजा-पुरजा कट मरने की, सदा रखी तैयारी भी,
वंचित-पीड़ित-दीन-हीन की, अस्मत सदा बचाई है!

जन-गण के कल्याण हेतु हम, सत्पथ पर होते बलिदान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

जिसके भी मन में स्वतंत्रता, अपनी जोत जगाती है,
जो भी चिड़िया कहीं सींखचों, से सिर को टकराती है!
वहाँ-वहाँ भारत रहता है, वहाँ-वहाँ भारत माता,
जहाँ कहीं भी संगीनों पर, कोई निर्भय छाती है!

आज़ादी के परवानों का, सदा सुना हमने आह्वान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

सब स्वतंत्र हैं, सब समान हैं, सब में भाईचारा है,
सब वसुधा अपना कुटुंब है, विश्व-नीड़ यह प्यारा है!
पंछी भरें उड़ान प्रेम से, दिग-दिगंत नभ को नापें,
कहीं शिकारी बचे न कोई, यह संकल्प हमारा है!

युद्ध और हिंसा मिट जाएँ, ऐसा चले शांति अभियान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

जल में, थल में और गगन में मूर्तिमान भारतमाता,
अधिकारों में, कर्तव्यों में, संविधान भारतमाता!
हिंसासुर के उन्मूलन में, सावधान भारतमाता,
'विजयी-विश्व तिरंगा प्यारा', प्रगतिमान भारतमाता!!

मनुष्यता की जय-यात्रा में, नित्य विजय, नूतन उत्थान!
भारत का संदेश विश्व को, मानव-मानव एक समान!!

दिशा-दिशा में गूँज रहा है, भारत माता का जयगान!

Sunday, 24 January 2016

हिमायत अली 'शाएर'---(दस्तक हवा ने दी है ज़रा ग़ौर से सुनो )

दस्तक हवा ने दी है ज़रा ग़ौर से सुनो
तूफ़ाँ की आ रही है सदा ग़ौर से सुनो

शाख़े उठा के हाथ दुआ माँगने लगीं
सरगोशियाँ चमन में हैं क्या ग़ौर से सुनो

महसूस कर रहा हूँ मैं कर्ब-ए-शिकस्तगी
तुम भी शगुफ़्त-ए-गुल की सदा ग़ौर से सुना

गुलचें को देख लेती है जब कोई शाख़-ए-गुल
देती है बद्-दुआ कि दुआ ग़ौर से सुनो

ये और बात ख़ुश्क हैं आँखें मगर कहीं
खुल कर बरस रही है घटा ग़ौर से सुनो

शाखों से टूटते हुए पत्तों को देख कर
रोती है मुँह छुपा के हवा ग़ौर से सुनो

ये दश्त-ए-बे-कराँ ये पुर-असरार ख़ामुशी
और दूर इक सदाए दरा ग़ौर से सुनो

ये बाज़-गश्त मेरी सदा की है या मुझे
आवाज़ दे रहा है ख़ुदा ग़ौर से सुनो

बढ़ती चली है अर्ज़ ओ समा में कशीदगी
कौनैन में है हश्र बपा ग़ौर से सुनो

कब तक ज़मीं उठाए रहे आसमाँ का बोझ
अब टूटती है रस्म-ए-वफ़ा ग़ौर से सुनो

मैं टूटता हूँ ख़ैर मुझे टूटना ही है
धरती चटख रही है ज़रा गौर से सुनो

सहरा में चीख़ते हैं बगूले तो शहर शहर
इक शोर है सुकूत-फ़जा ग़ौर से सुनो

‘शाइर’ तराशते तो हो दिल में ख़ुदा का बुत
आवाज़ा-ए-शिकस्त-ए-अना ग़ौर से सुनो

विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'---(मैं पागल, प्राण लुटा आया)

दुनिया ने केवल स्वर माँगा- मैं पागल, प्राण लुटा आया!

मन का बन फूला फूला था
साँसों में सौरभ झूला था
प्राणों की धरती पर जैसे
माधव का यौवन झूला था

तब ढँक न सका मैं अपनापन भर गये सुरभि से धरा गगन
इसलिए कि स्वर-माला से मैं फूलों सा गान लुटा आया!

फिर चिंता के दो क्षण आये
पग थके डगर पर भरमाये
मन ऊब गया सूनेपन में
आँखों में बादल भर आये

तब मैंने मन पहचान लिया, जग आतुर है यह जान लिया
इसलिए धुएँ में डूबा भी उर की मुस्कान लुटा आया!

सुख ने तो मधुर पराग लिया
दुख ने छती को आग किया
फिर भी जब दुनिया वालों ने
मेरा घर मुझसे माँग लिया

तब बेघर का बेचारा मैं अपनी मंज़िल से हारा मैं
असहाय पड़े करुणा वाले पथ को आह्वान लुटा आया!

Thursday, 14 January 2016

'हफ़ीज़' जौनपुरी---(दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के)



दिया जब जाम-ए-मय साक़ी ने भर के
तो पछताए बहुत हम तौबा कर के

लिपट जाओ गले से वक़्त-ए-आखिर
कि फिर जीता नहीं है कोई मर के

वहाँ से आ के उस की भी फिरी आँख
वो तेवर ही नहीं अब नामा-बर के

कोई जब पूछता है हाल दिल का
तो रो देते हैं हम इक आह भर के

गुलों के इश्क़ में दे जान बुलबुल
अरे ये हौसले एक मुश्त पर के

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे उन की ज़िद से
जो कहते हैं दिखा देते हैं कर के

रहेंगे ख़ाक में हम को मिला कर
तिरे अंदाज़ इस नीची नज़र के

दिमाग़ अपना न क्यूँ कर अर्श पर हो
ये समझो तो गदा हैं किस के दर के

हुई है क़ैद से बद-तर रिहाई
किया आज़ाद उस ने पर कतर के

उठे जाते हैं लो दुनिया से हम आज
मिटे जाते हैं झगड़े उम्र भर के

‘हफ़ीज’ अब नाला ओ फ़रीयाद छोड़ो
कोई दिन यूँ भी देखा सब्र कर के

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"--(संध्या सुन्दरी)

दिवसावसान का समय-
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक-
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता,
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-

व्योम मंडल में, जगतीतल में-
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में-
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में-
धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-
उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में-
क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में-
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-

और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
प्याला एक पिलाती।
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।
अर्द्धरात्री की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से,
आप निकल पड़ता तब एक विहाग!

Monday, 11 January 2016

गोपालदास "नीरज"---(अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए)

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।

जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए।

गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’---(सांसों का हिसाब)

तुम जो जीवित कहलाने के हो आदी
तुम जिसको दफ़ना नहीं सकी बरबादी
तुम जिनकी धड़कन में गति का वन्दन है
तुम जिसकी कसकन में चिर संवेदन है
तुम जो पथ पर अरमान भरे आते हो
तुम जो हस्ती की मस्ती में गाते हो
तुम जिनने अपना रथ सरपट दौड़ाया
कुछ क्षण हाँफे, कुछ साँस रोककर गाया
तुमने जितनी रासें तानी, मोड़ी हैं
तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं
उनका हिसाब दो और करो रखवाली
कल आने वाला है साँसों का माली
कितनी साँसों की अलकें धूल सनी हैं
कितनी साँसों की पलकें फूल बनी हैं?
कितनी साँसों को सुनकर मूक हुए हो?
कितनी साँसों को गिनना चूक गये हो?
कितनी सांसें दुविधा के तम में रोयीं?
कितनी सांसें जमुहाई लेकर खोयीं?
जो सांसें सपनों में आबाद हुई हैं
जो सांसें सोने में बर्बाद हुई हैं
जो सांसें साँसों से मिल बहुत लजाईं
जो सांसें अपनी होकर बनी पराई
जो सांसें साँसों को छूकर गरमाई
जो सांसें सहसा बिछुड़ गईं ठंडाई
जिन साँसों को छल लिया किसी छलिया ने
उन सबको आज सहेजो इस डलिया में
तुम इनको निर्रखो परखो या अवरेखो
फिर साँस रोककर उलट पलट कर देखो
क्या तुम इन साँसों में कुछ रह पाये हो?
क्या तुम इन साँसों से कुछ कह पाये हो?
इनमें कितनी ,हाथों में गह सकते हो?
इनमें किन किन को अपनी कह सकते हो?
तुम चाहोगे टालना प्रश्न यह जी भर
शायद हंस दोगे मेरे पागलपन पर
कवि तो अदना बातों पर भी रोता है
पगले साँसों का भी हिसाब होता है?
कुछ हद तक तुम भी ठीक कह रहे लेकिन
सांसें हैं केवल नहीं हवाई स्पंदन
यह जो विराट में उठा बबंडर जैसा
यह जो हिमगिरि पर है प्रलयंकर जैसा
इसके व्याघातों को क्या समझ रहे हो?
इसके संघातों को क्या समझ रहे हो?
यह सब साँसों की नई शोध है भाई!
यह सब साँसों का मूक रोध है भाई
जब सब अंदर अंदर घुटने लगती है
जब ये ज्वालाओं पर चढ़कर जगती है
तब होता है भूकंप श्रृंग हिलते हैं
ज्वालामुखियों के वो फूट पड़ते हैं
पौराणिक कहते दुर्गा मचल रही है
आगन्तुक कहते दुनिया बदल रही है
यह साँसों के सम्मिलित स्वरों की बोली
कुछ ऐसी लगती नई नई अनमोली
पहचान जान में समय समय लगा करता है
पग पग नूतन इतिहास जगा करता है
जन जन का पारावार बहा करता है
जो बनता है दीवार ढहा करता है
सागर में ऐसा ज्वार उठा करता है
तल के मोती का प्यार तुला करता है
सांसें शीतल समीर भी बड़वानल भी
सांसें हैं मलयानिल भी दावानल भी
इसलिए सहेजो तुम इनको चुन चुन कर
इसलिए संजोओइनको तुम गिन गिन कर
अबतक गफ़लत में जो खोया सो खोया
अब तक अंतर में जो बोया सो बोया
अब तो साँसों की फ़सल उगाओ भाई
अब तो साँसों के दीप जलाओ भाई
तुमको चंदा से चाव हुआ तो होगा
तुमको सूरज ने कभी छुआ तो होगा?
उसकी ठंडी गरमी का क्या कर डाला?
जलनिधि का आकुल ज्वार कहाँ पर पाला?
मरुथल की उड़ती बालू का लेखा दो
प्याले अधर्रों की अकुलाई रेखा दो
तुमने पी ली कितनी संध्या की लाली?
ऊषा ने कितनी शबनम तुममें ढालीं?
मधुऋुतु को तुमने क्या उपहार दिया था?
पतझर को तुमने कितना प्यार किया था?
क्या किसी साँस की रगड़ ज्वाला में बदली?
क्या कभी वाष्प सी साँस बन गई बदली?
फिर बरसी भी तो कितनी कैसी बरसी?
चातकी बिचारी कितनी कैसी तरसी?
साँसों का फ़ौलादी पौरुष भी देखा?
कितनी साँसों ने की पत्थर पर रेखा
हर साँस साँस की देनी होगी गिनती
तुम इनको जोड़ों बैठ कहीं एकाकी
बेकार गईं जो उनकी कर दो बाक़ी
जो शेष बचे उनका मीजान लगा लो
जीवित रहने का अब अभिमान जगा लो
मृत से जीवित का अब अनुपात बता दो
साँसों की सार्थकता का मुझे पता दो
लज्जित क्यों होने लगा गुमान तुम्हारा?
क्या कहता है बोलो ईमानदार तुम्हारा?
तुम समझे थे तुम सचमुच मैं जीते हो
तुम ख़ुद ही देखो भरे या कि रीते हो
जीवन की लज्जा है तो अब भी चेतो
जो जंग लगी उनको ख़राद पर रेतो
जितनी बाक़ी हैं सार्थक उन्हें बना लो
पछताओ मत आगे की रक़म भुना लो
अब काल न तुमसे बाज़ी पाने पाये
अब एक साँस भी व्यर्थ न जाने पाये
तब जीवन का सच्चा सम्मान रहेगा
यह जिया न अपने लिए मौत से जीता
यह सदा भरा ही रहा न ढुलका रीता

Tuesday, 5 January 2016

लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी---(कौन कहता है कि हम बेसरो-सामाँ निकले)

कौन कहता है कि हम बेसरो-सामाँ[1] निकले
बज़्म से आज भी हम हश्र-बदामाँ[2] निकले

यह न हो ख़ाना-ए-दिल शहरे-ख़मोशाँ निकले
क्या ज़रूरी है कि जो क़तरा है तूफ़ाँ निकले

इब्ने-आदम[3] की तरक्की का भरम टूट गया
हम जिन्हें शहर समझते थे बियाबाँ निकले

हमने सहरा की ख़मोशी को भी बख़्शा है कलाम
आप गुलशन से भी अंगुश्त-बदन्दाँ[4] निकले

हिज्र की रात पे बरसात का होता था गुमाँ
अश्क़ भी आज मेरी शान के शायाँ निकले

वक़्त ने ख़ूब निकाले थे हमारे कस-बल
शुक्र ये है कि करम तेरे फ़रावाँ निकले

जा बसूँ आलमे-इम्काँ से परे जन्नत में
तेरी जन्नत न कहीं आलमे-इम्काँ निकले

मंज़िले-ज़ीस्त ने जब ढूँढना चाहा मुझको
हम ख़िज़ाँ में भी कहीं ग़र्क़े-बहाराँ निकले

आड़े आ जाता है अंगुश्ते-नुमाई [5] का ख़याल
वरना ये ज़िंदगी और हमसे गुरेज़ाँ निकले

तेरी रहमत का तो हक़दार नहीं मैं यारब
दे मुझे जितनी भी अब फ़ुर्सते-असियाँ[6] निकले

जिन को देखा था सितारों से उलझते शब को
सुबह देखा तो हमारे ही वो अरमाँ निकले

ख़ाक-पोशी ही गुनाहों का सबब है ऐ ‘चाँद’
ज़िन्दगी ख़ाक के परदे से भी उरियाँ  निकले
शब्दार्थ:
1-ख़ाली हाथ
2-झगड़ा करके
3-आदम के बेटे
4-ठेंगा दिखाते हुए
5-अँगूठा दिखाने
6-पाप की फ़ुर्सत

शिशुपाल सिंह 'निर्धन'---(हँसकर तपते रहो)

रात-रात भर जब आशा का दीप मचलता है,
तम से क्या घबराना सूरज रोज़ निकलता है ।
कोई बादल कब तक
रवि-रथ को भरमाएगा?
ज्योति-कलश तो निश्चित ही
आँगन में आएगा।
द्वार बंद मत करो भोर रसवन्ती आएगी,
कभी न सतवंती किरणों का चलन बदलता है ।
भले हमें सम्मानजनक
सम्बोधन नहीं मिले,
हम ऐसे हैं सुमन
कहीं गमलों में नहीं खिले।
अपनी वाणी है उद्बोधन गीतों का उद्गम,
एक गीत से पीड़ा ओं का पर्वत गलता है ।
ठीक नहीं है यहाँ
वेदना को देना वाणी,
किसी अधर पर नहीं-
कामना, कोई कल्याणी ।
चढ़ता है पूजा का जल भी ऐसे चरणों पर
जो तुलसी बनकर अपने आँगन में पलता है ।
मत दो तुम आवाज़
भीड़ के कान नहीं होते,
क्योंकि भीड़ में-
सबके सब इन्सान नहीं होते ।
मोती पाने के लालच में नीचे मत उतरो,
प्रणपालक तृण तूफ़ानों के सर पर चलता है ।
रात कटेगी कहो कहानी
राजा-रानी की,
करो न चिन्ता
जीवन-पथ में, गहरे पानी की।
हँसकर तपते रहो छाँव का अर्थ समझने को,
अश्रु बहाने से न कभी पाषाण पिघलता है ।

Saturday, 2 January 2016

कैफ़ी आज़मी---(दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए)

                                                (Pushpamala_N_and_Clare_Arni_Lady_in_Moonlight_after_1889_oil_painting_by_Raja_Ravi_Varma)


दस्तूर[1] क्या ये शहरे-सितमगर[2] के हो गए ।
जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए ।

ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए ।

जब सर ढका तो पाँव खुले फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए ।

दिल में कोई सनम ही बचा, न ख़ुदा रहा
इस शहर पे ज़ुल्म भी लश्कर के हो गए ।

हम पे बहुत हँसे थे फ़रिश्ते सो देख लें
हम भी क़रीब गुम्बदे-बेदर[3] के हो गए ।
शब्दार्थ:
1-प्रचलन
2-अन्याय का शहर, प्रिय का शहर
3-आकाश

महावीर प्रसाद ‘मधुप’---(पाँव छलनी हो, पथ में अटकते रहे )

पाँव छलनी हो, पथ में अटकते रहे
फूल भी शूल बनकर खटकते रहे

उठ के ऊपर, गगन को न हम छू सके
बन त्रिशंकु अधर में लटकते रहे

याद आती रही दुश्मनों की हमें
दोस्त दामन को जब-जब झठकते रहे

संगदिल का पिघलना न संभव हुआ
रोज़ चौखट पे सर को पटकते रहे

दम बहारों में भरते थे जो प्यार का
वो ख़िज़ाओं में छुप कर सटकते रहे

ज़िन्दगी भर न दीदार हासिल हुआ
दर-ब-दर हम जहाँ में भटकते रहे

देश सेवा के पर्दे में नेता कई
मुफ़्त का माल हरदम गटकते रहे

शोख़ सैयाद गुलशन के माली बने
बाग़बां सब ‘मधुप’ राह तकते रहे