पाँव छलनी हो, पथ में अटकते रहे
फूल भी शूल बनकर खटकते रहे
उठ के ऊपर, गगन को न हम छू सके
बन त्रिशंकु अधर में लटकते रहे
याद आती रही दुश्मनों की हमें
दोस्त दामन को जब-जब झठकते रहे
संगदिल का पिघलना न संभव हुआ
रोज़ चौखट पे सर को पटकते रहे
दम बहारों में भरते थे जो प्यार का
वो ख़िज़ाओं में छुप कर सटकते रहे
ज़िन्दगी भर न दीदार हासिल हुआ
दर-ब-दर हम जहाँ में भटकते रहे
देश सेवा के पर्दे में नेता कई
मुफ़्त का माल हरदम गटकते रहे
शोख़ सैयाद गुलशन के माली बने
बाग़बां सब ‘मधुप’ राह तकते रहे
फूल भी शूल बनकर खटकते रहे
उठ के ऊपर, गगन को न हम छू सके
बन त्रिशंकु अधर में लटकते रहे
याद आती रही दुश्मनों की हमें
दोस्त दामन को जब-जब झठकते रहे
संगदिल का पिघलना न संभव हुआ
रोज़ चौखट पे सर को पटकते रहे
दम बहारों में भरते थे जो प्यार का
वो ख़िज़ाओं में छुप कर सटकते रहे
ज़िन्दगी भर न दीदार हासिल हुआ
दर-ब-दर हम जहाँ में भटकते रहे
देश सेवा के पर्दे में नेता कई
मुफ़्त का माल हरदम गटकते रहे
शोख़ सैयाद गुलशन के माली बने
बाग़बां सब ‘मधुप’ राह तकते रहे
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