Sunday, 8 May 2016

जयकृष्ण राय तुषार--(हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे)

कोई पूजा में रहे कोई अजानों में रहे
हर कोई अपने इबादत के ठिकानों में रहे

अब फिजाओं में न दहशत हो, न चीखें, न लहू
अम्न का जलता दिया सबके मकानों में रहे

ऐ मेरे मुल्क मेरा ईमां बचाये रखना
कोई अफवाह की आवाज न कानों में रहे

मेरे अशआर मेरे मुल्क की पहचान बनें
कोई रहमान मेरे कौमी तरानें में रहे

बाज के पंजों न ही जाल, बहेलियों से डरे
ये परिन्दे तो हमेशा ही उड़ानों में रहे

हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे
चाभियों वाले बहुत ऊंचे घरानों में रहे

वो तो इक शेर था जंगल से खुले में आया
ये शिकारी तो हमेशा ही मचानों में रहे।

अहमद नदीम क़ासमी---(लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा)

लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा
राज़ हर रंग में रुस्वा होगा

दिल के सहरा में चली सर्द हवा
अबर् गुलज़ार पर बरसा होगा

तुम नहीं थे तो सर-ए-बाम-ए-ख़याल
याद का कोई सितारा होगा

किस तवक्क़ो पे किसी को देखें
कोई तुम से भी हसीं क्या होगा

ज़ीनत-ए-हल्क़ा-ए-आग़ोश बनो
दूर बैठोगे तो चर्चा होगा

ज़ुल्मत-ए-शब में भी शर्माते हो
दर्द चमकेगा तो फिर क्या होगा

जिस भी फ़नकार का शाहकार हो तुम
उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा

किस क़दर कबर् से चटकी है कली
शाख़ से गुल कोई टूटा होगा

उमर् भर रोए फ़क़त इस धुन में
रात भीगी तो उजाला होगा

सारी दुनिया हमें पहचानती है
कोई हम-स भी न तन्हा होगा

कृष्ण शलभ--(है चाहता बस मन तुम्हें)

शीतल पवन, गंधित भुवन
आनन्द का वातावरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

शतदल खिले भौंरे जगे
मकरन्द फूलों से भरे
हर फूल पर तितली झुकी
बौछार चुम्बन की करे
सब ओर मादक अस्फुरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

संझा हुई सपने जगे
बाती जगी दीपक जला
टूटे बदन घेरे मदन
है चक्र रतिरथ का चला
कितने गिनाऊँ उद्धरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

नीलाभ जल की झील में
राका नहाती निर्वसन
सब देख कर मदहोश हैं
उन्मत्त चाँदी का बदन
रसरंग का है निर्झरण
सब कुछ यहाँ बस तुम नहीं
है चाहता बस मन तुम्हें

कृष्ण कुमार ‘नाज़’--(एहसास की शिद्दत ही सिमट जाए तो अच्छा)


एहसास की शिद्दत ही सिमट जाए तो अच्छा
ये रात भी आँखों ही में कट जाए तो अच्छा

कश्ती ने किनारे का पता ढूँढ लिया है
तूफ़ान से कहदो कि पलट जाए तो अच्छा

शाख़ों पे खिले फूल यही सोच रहे हैं
तितली जो कोई आके लिपट जाए तो अच्छा

जिस नींद की बाँहों में न तू हो, न तेरे ख़्वाब
वो नींद ही आँखों से उचट जाए तो अच्छा

अब तक तो मुक़द्दर ने मेरा साथ दिया है
बाक़ी भी अगर चैन से कट जाए तो अच्छा

ख़ुद से भी मुलाक़ात ज़रूरी है बहुत ‘नाज़’
यादों की घनी भीड़ जो छट जाए तो अच्छा

कृष्ण कुमार ‘नाज़’--(वफ़ा भी, प्यार भी, नफरत भी, बदगुमानी भी)


वफ़ा भी, प्यार भी, नफरत भी, बदगुमानी भी
है सबकी तह में हक़ीक़त भी और कहानी भी

जलो तो यूँ कि हर इक सिम्त रोशनी हो जाय
बुझो तो यूँ कि न बाक़ी रहे निशानी भी

ये ज़िंदगी है कि शतरंज की कोई बाज़ी
ज़रा-सी चूक से पड़ती है मात खानी भी

किसी की जीत का मतलब हुआ किसी की हार
बड़ा अजीब तमाशा है ज़िंदगानी भी

उन आँसुओं का समंदर है मेरी आँखों में
जिन आँसुओं में है ठहराव भी, रवानी भी

दवा की फेंकी हुई ख़ाली शीशियों की तरह
है रास्तों की अमानत मेरी कहानी भी

महानगर है ये, सब कुछ यहाँ पे मुमकिन है
यहाँ बुढ़ापे-सी लगती है नौजवानी भी

हैं चंद रोज़ के मेहमान हम सभी ऐ ‘नाज़’
हमीं को करनी है ख़ुद अपनी मेज़बानी भी

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'----(पानी पानी पानी)

पानी पानी पानी,
अमृतधारा सा पानी
बि‍न पानी सब सूना सूना
हर सुख का रस पानी

पावस देख पपीहा बोल
दादुर भी टर्राये
मेह आओ ये मोर बुलाये
बादर घि‍र-घि‍र आये
मेघ बजे नाचे बि‍जुरी
और गाये कोयल रानी।

रुत बरखा की प्रीत सुहानी
भेजा पवन झकोरा
द्रुमदल झूमे फैली सुरभि‍
मेघ बजे घनघोरा
गगन समन्‍दर ले आया
धरती को देने पानी।

बाँध भरे नदि‍या भी छलकीं
खेत उगाये सोना
बाग बगीचे,हरे भरे
धरती पर हरा बि‍छौना
मन हुलसे पुलकि‍त तन झंकृत
खुशी मि‍ली अनजानी।

उपवन कानन ताल तलैया
थे सूखे दि‍ल धड़कें
जाता सावन ज्‍योंही लौटा
सबकी भीगी पलकें
क्‍या बच्‍चे क्‍या बूढे नाचे
सब पर चढ़ी जवानी।

पानी पानी पानी।

रामधारी सिंह "दिनकर"--(रोटी और स्वाधीनता )

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?

झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी

ग़ालिब--(फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया)


फिर मुझे दीदा-ए-तर याद[1] आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़[2]
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया

सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नज़र याद आया

उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया

ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया

क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्‌द[3] में गर याद आया

आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया

फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद आया

कोई वीरानी-सी-वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया

मैंने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था के सर याद आया

शब्दार्थ:

1-↑ भीगी हुई आँख
2-↑ अभी
3-↑ स्वर्ग

दिनेश त्रिपाठी 'शम्स'---(एक लम्हा गुजार कर आये)


एक लम्हा गुजार कर आए ,
या कि सदियों को पार कर आए

जीत के सब थे दावेदार मगर ,
एक हम थे कि हारकर आए

आईने सब खिलाफ़ थे लेकिन ,
पत्थरों से क़रार कर आए

ज़िन्दगी एक तुझसे निभ जाये ,
खुद से धोखे हज़ार कर आए

आज़ ही हम बज़ार में पहुंचे ,
आज ही हम उधार कर आए

अपने दामन को खुद रफ़ू करके ,
खुद की फिर तार-तार कर आए

तेरी महफ़िल में ‘शम्स’ जो आए ,
ग़म की चादर उतार कर आए

अहमद महफूज़---(नहीं आसमाँ तेरी चाल में नहीं आऊँगा)

नहीं आसमाँ तेरी चाल में नहीं आऊँगा
मैं पलट के अब किसी हाल में नहीं आऊँगा

मेरी इब्तिदा मेरी इंतिहा कहीं और है
मैं शुमार-ए-माह-ओ-साल में नहीं आऊँगा

अभी इक अज़ाब से है सफ़र इक अज़ाब तक
अभी रंग-ए-शाम-ए-ज़वाल में नहीं आऊँगा

वही हालतें वही सूरतें हैं निगाह में
किसी और सूरत-ए-हाल में नहीं आऊँगा

मुझे क़ैद करने की ज़हमतें न उठाइए
नहीं आऊँगा किसी जाल में नहीं आऊँगा

मैं ख़याल ओ ख़्वाब हिसार से भी निकल चुका
सो किसी के ख़्वाब ओ ख़याल में नहीं आऊँगा

न हो बद-गुमाँ मेरी दाद-ख़्वाही-ए-हिज्र से
मेरी जाँ मैं शौक़-ए-विसाल में नहीं आऊँगा.

कृष्ण बिहारी 'नूर'---(बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है)

बस एक वक़्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है,
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है|

ये और बात कि पहचानता नहीं मुझे
सुना है एक सितमग़र मेरी तलाश में है

अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है

ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं
दिया जलाये जो दर पर मेरी तलाश में है

अज़ीज़ मैं तुझे किस कदर कि हर एक ग़म
तेरी निग़ाह बचाकर मेरी तलाश में है

मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है,
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है|

मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में,
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है|

मैं जिसके हाथ में इक फूल देके आया था,
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है|

वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला ‘नूर’
वही ख़ुलूस मुकर्रर मेरी तलाश में है

मीराबाई--(मेरो दरद न जाणै कोय)


हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होय।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय।
दरद की मारी बन-बन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी, जद बैद सांवरिया होय

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़--(हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है)

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम[1]! तो नहीं है ये इकराम[2] ही तो है

करते हैं जिस पे ता'न[3], कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े-फ़ुज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है

दिल मुद्दई के हर्फ़े-मलामत[4] से शाद है
ऐ जाने-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

दस्ते-फ़लक[5] में, गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-अय्याम ही तो है

आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़साल[6] सरे-बाम ही तो है

भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्ते-सरोद[7], दर्द का हंगाम ही तो है

मांटगोमरी जेल, 9 मार्च 1954

शब्दार्थ:

1-↑ गाली
2-↑ कृपा
3-↑ व्यंग्य
4-↑ निंदा का शब्द
5-↑ आसमान का हाथ
6-↑ अच्छे गुणों वाला यार
7-↑ गाने का वक़्त

हरिवंशराय बच्चन---(ऐसे मैं मन बहलाता हूँ)


सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम,
उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

क़तील शिफ़ाई ---(धूप है रंग है या सदा है )

धूप है ,रंग है या सदा है
रात की बन्द मुट्ठी में क्या है

छुप गया जबसे वो फूल-चेहरा
शहर का शहर मुरझा गया है

किसने दी ये दरे-दिल पे दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है

पूछता है वो अपने बदन से
चाँद खिड़की से क्यों झाँकता है

क्यों बुरा मैं कहूँ दूसरों को
वो तो मुझको भी अच्छा लगा है

क़हत[1] बस्ती में है नग़मगी[2] का
मोर जंगल में झनकारता है

वो जो गुमसुम-सा इक शख़्स है ना
आस के कर्ब[3] में मुब्तिला[4] है

आशिक़ी पर लगी जब से क़दग़न[5]
दर्द का इर्तिक़ा[6] रुक गया है

दिन चढ़े धूप में सोने वाला
हो न हो रात-भर जागता है

इस क़दर ख़ुश हूँ मैं उससे मिलकर
आज रोने को जी चाहता है

मेरे चारों तरफ़ मसअलों[7]का
एक जंगल-सा फैला हुआ है

दब के बेरंग जुमलों[8] के नीचे
हर्फ़[9] का बाँकपन मर गया है

बेसबब उससे मैं लड़ रहा हूँ
ये मुहब्बत नहीं है तो क्या है

गुनगुनाया ‘क़तील’ उसको मैंने
उसमें अब भी ग़ज़ल का मज़ा है

शब्दार्थ:

1-↑ अकाल
2-↑ संगीत
3-↑ दु:ख
4-↑ ग्रस्त
5-↑ प्रतिबंध
6-↑ प्रगति
7-↑ समस्याओं
8-↑ वाक्यों
9-↑ शब्द

जिगर मुरादाबादी---(दिले हजीं की तमन्ना दिले-हजीं में रही )

दिले हजीं [1] की तमन्ना दिले-हजीं [2] में रही
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही

हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही

सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही

शब्दार्थ:

1- ↑ उदास मन की कहानी
2-↑ उदास मन
3- ↑ पर्दा
4- ↑ वास्तविकताएँ
5-↑ परस्पर
6-↑ अकारण
7-↑ खींचातानी
8-↑ धर-अधर्म
9-↑ श्रद्धापूर्ण सर
10-↑ चुभन
11-↑ माथा

ज़हीर रहमती---(आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए)

आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए
दरमियाँ हम उन के हाइल हो गए

कुछ न होते होते इक दिन ये हुआ
सैकड़ों सदियों का हासिल हो गए

कश्तियाँ आ कर गले लगने लगीं
डूब कर आख़िर को साहिल हो गए

और एहसास-ए-जिहालत बढ़ गया
किस क़दर पढ़ लिख के जाहिल हो गए

अपनी अपनी राह चलने वाले लोग
भीड़ में आख़िर को शामिल हो गए

तंदुरुस्ती ज़ख़्म-कारी से हुई
ये हुआ शर्मिंदा क़ातिल हो गए

हुस्न तो पूरा अधूरे-पन में है
सब अधूरे माह-ए-कामिल हो गए

जयकृष्ण राय तुषार---(हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे)

कोई पूजा में रहे कोई अजानों में रहे
हर कोई अपने इबादत के ठिकानों में रहे

अब फिजाओं में न दहशत हो, न चीखें, न लहू
अम्न का जलता दिया सबके मकानों में रहे

ऐ मेरे मुल्क मेरा ईमां बचाये रखना
कोई अफवाह की आवाज न कानों में रहे

मेरे अशआर मेरे मुल्क की पहचान बनें
कोई रहमान मेरे कौमी तरानें में रहे

बाज के पंजों न ही जाल, बहेलियों से डरे
ये परिन्दे तो हमेशा ही उड़ानों में रहे

हम तो मिट्‌टी के खिलौने थे गरीबों में रहे
चाभियों वाले बहुत ऊंचे घरानों में रहे

वो तो इक शेर था जंगल से खुले में आया
ये शिकारी तो हमेशा ही मचानों में रहे।

क़तील शिफ़ाई ---(सारी बस्ती में ये जादू )


सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको
जो दरीचा भी खुले तू नज़र आए मुझको॥

सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया
मैं एक हसीन शक्स की बातों में आ गया॥

जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए
देर तक अपने बदन से तेरी खुशबू आए॥

गुस्ताख हवाओं की शिकायत न किया कर
उड़ जाए दुपट्टा तो खनक कर॥

रुम पूछो और में न बताउ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं॥

रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोके खाए है
अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए है॥

अख़्तर नाज़्मी---(जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ )


जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
या किसी और तलबगार को दे देता हूँ।

धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ।

जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे
वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ।

मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है, न सही
हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ।

जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है
अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ।

ख़ुद को कर देता हूँ कागज़ के हवाले अक्सर
अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ ।

मेरी दुकान की चीजें नहीं बिकती नज़्मी
इतनी तफ़सील ख़रीदार को दे देता हूँ।

जा़किर अली ‘रजनीश’---(असह्य होती जा रही प्रतीक्षा)

रूप तुम्हारा देखूँ मन में केवल इतनी इच्छा।
टूट रहे हैं बाँध असह्य होती जा रही प्रतीक्षा।

नयन राह पर लगे हुए हैं हटती नहीं निगाहें।
कब तुमसे मिलवाएँगी मुझको ये सूनी राहें।

और अभी कब तक देनी है मुझको कठिन परीक्षा।
टूट रहे हैं बाँध असह्य होती जा रही प्रतीक्षा।

मन मछली सा तड़प रहा कब पाएगा ये राहत।
कानों में रस घोलेगी कब तेरे स्वर की आहट।

दीन हुआ जाता मैं प्रतिपल भाती कोई न शिक्षा।
टूट रहे हैं बाँध असह्य होती जा रही प्रतीक्षा।

माँग रहा हूँ तुमसे मैं सानिध्य लाभ की भिक्षा।
टूट रहे हैं बाँध असह्य होती जा रही प्रतीक्षा।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ---(हमारे कृषक)

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं

पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना

विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे

दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से

हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं.

कबीर---(रे दिल गाफिल गफलत मत कर)

रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥

सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,
प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥

सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,
सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥

परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,
टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥

दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,
चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥

माखनलाल चतुर्वेदी--(ये वृक्षों में उगे परिन्दे)

ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये।

झाँक रहे हैं नभ में किसको
फिर अनगिनती पाँखों से
जो न झाँक पाया संसृति-पथ
कोटि-कोटि निज आँखों से।

श्याम धरा, हरि पीली डाली
हरी मूठ कस डाली
कली-कली बेचैन हो गई
झाँक उठी क्या लाली!

आकर्षण को छोड़ उठे ये
नभ के हरे प्रवासी
सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी
हवा हो गई दासी।

बाँध दिये ये मुकुट कली मिस
कहा-धन्य हो यात्री!
धन्य डाल नत गात्री।
पर होनी सुनती थी चुप-चुप
विधि -विधान का लेखा!
उसका ही था फूल
हरी थी, उसी भूमि की रेखा।

धूल-धूल हो गया फूल
गिर गये इरादे भू पर
युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये
गिर आये प्यादे भू पर।

हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध
हरी-हरी ऊँचे उठने की
बढ़ती रहे सुगन्ध!

पर ज़मीन पर पैर रहेंगे
प्राप्ति रहेगी भू पर
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि
मूर्त्ति रहेगी भू पर।।

जावेद अख़्तर---(यही हालात इब्तदा से रहे )


यही हालात इब्तदा[1] से रहे
लोग हमसे ख़फ़ा-ख़फ़ा-से रहे

बेवफ़ा तुम कभी न थे लेकिन
ये भी सच है कि बेवफ़ा-से रहे

इन चिराग़ों में तेल ही कम था
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे

बहस, शतरंज, शेर, मौसीक़ी[2]
तुम नहीं रहे तो ये दिलासे रहे

उसके बंदों को देखकर कहिये
हमको उम्मीद क्या ख़ुदा से रहे

ज़िन्दगी की शराब माँगते हो
हमको देखो कि पी के प्यासे रहे

शब्दार्थ:

1-↑ शुरु
2-↑ संगीत कला

हरिवंश राय 'बच्चन--(ऐसे मैं मन बहलाता हूँ)

सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम,
उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

रसखान---(जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं )

जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यों जात बिसेस.
सोई प्रेम जेहि आन कै रही जात न कछु सेस.
प्रेम फाँस सो फँसि मरै सोई जियै सदाहिं .
प्रेम मरम जाने बिना मरि कोउ जीवत नाहिं.

प्रफुल्ल कुमार परवेज़---(हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग)


हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग

एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग

घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग

बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग

धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग

ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग

आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग

अकबर इलाहाबादी--(दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ)

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त2 की लज़्ज़त3 नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्त4 से गुज़र जाऊँगा बेलौस5
साया हूँ फ़क़्त6, नक़्श7 बेदीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा8 हूँ इबारत9 से, दवा की नहीं हाजित10
गम़ का मुझे ये जो’फ़11 है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल12 हूँ ख़िज़ां13 ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार14 नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़15 रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत16 का तलबगार17 नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़18 की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर19 के मुक़ाबिल में भी दींदार20 नहीं हूँ


शब्दार्थ: 1. तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला; 2. ज़ीस्त= जीवन; 3. लज़्ज़त= स्वाद; 4. ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; 5. बेलौस= लांछन के बिना; 6. फ़क़्त= केवल; 7. नक़्श= चिन्ह, चित्र; 8. अफ़सुर्दा= निराश; 9. इबारत= शब्द, लेख; 10. हाजित(हाजत)= आवश्यकता; 11. जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता; 12. गुल= फूल; 13. ख़िज़ां= पतझड़; 14. ख़ार= कांटा; 15. महफ़ूज़= सुरक्षित; 16. इनायत= कृपा; 17. तलबगार= इच्छुक; 18. अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता; 19. क़ाफ़िर= नास्तिक; 20. दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।

कविता किरण---(ग़ैर को ही पर सुनाये तो सही )


ग़ैर को ही पर सुनाए तो सही
शेर मेरे गुनगुनाए तो सही

हाँ, नहीं हमसे, रकीबों से सही
आपने रिश्ते निभाए तो सही

किन ख़ताओं की मिली हमको सज़ा
ये कोई हमको बताए तो सही

आँख बेशक हो गई नम फिर भी हम
ज़ख़्म खाकर मुस्कुराए तो सही

याद आए हर घड़ी अल्लाह हमें
इस क़दर कोई सताए तो सही

ज़िन्दगी के तो नहीं पर मौत के
हम किसी के काम आए तो सही

प्रफुल्ल कुमार परवेज़---(हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग)

हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग

एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग

घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग

बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग

धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग

ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग

आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग

कुँअर बेचैन--(ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक )

ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार क‍़दम, धूप चली मीलों तक

प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक

प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक

घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक

माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक

मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक

हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक

Sunday, 17 April 2016

कबीर-(रे दिल गाफिल गफलत मत कर)


रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥

सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,
प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥

सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,
सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥

परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,
टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥

दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,
चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥

ज़फ़र गोरखपुरी--(पल पल जीने की ख़्वाहिश में)

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
सब थे नशात-ए-नफ़ा के पीछे हम ने रंज-ए-ज़रर माँगा

अब तक जो दस्तूर-ए-जुनूँ था हम ने वही मंज़र माँगा
सहरा दिल के बराबर चाहा दरिया आँखों भर माँगा

देखना ये है अपने लहू की कितनी ऊँची है परवाज़
ऐसी तेज़ हवा में हम ने काग़ज़ का इक पर माँगा

अब्र के एहसाँ से बचना था दिल को हरा भी रखना था
हम ने इस पौदे की ख़ातिर मौज-ए-दीदा-ए-तर माँगा

कोई असासा पास नहीं और आँधी हर दिन का मामूल
हम ने भी क्या सोच समझ कर बे-दीवार का घर माँगा

खुला के वो भी तेरी तलब का इक बे-नाम तसलसुल था
दुनिया से जो भी हम ने हालात के ज़ेर-ए-असर माँगा

आरसी प्रसाद सिंह---(जन्मभूमि-जननी)

जन्मभूमि जननी !
पृथ्वी शिर और मुकुट
चन्दन सन्तरिणी
जन्भूमि जननी।
वन-वनमे मृगशावक,
नभमे रवि-शशि दीपक,
हिमगिरिसँ सागर तक
विपुलायत धरणी,
जन्मभूमि जननी।
दिक्-दिक्मे इन्द्रजाल,
नवरसमय आलवाल,
पुष्पित अंचल रसाल,
नन्दन वन सरणी,
जन्म भूमि जननी
शक्ति, ओज, प्राणमयी,
देवी वरदानमयी,
प्रतिपल कल्याणमयी
दिवा अओर रजनी,
जन्मभूमि जननी।

आचार्य सारथी रूमी------(कोई सपना सलोना चाहता है)

कोई सपना सलोना चाहता है,
लिपटकर मुझसे रोना चाहता है!

तू मेरा चैन खोना चाहता है,
तो क्या बेचैन होना चाहता है!

उसे माँ चाँद दिखलाने लगी है,
मगर बच्चा खिलौना चाहता है!

मैं नीली छत के नीचे ख़ुश हुआ तो
वो बारिश में भिगोना चाहता है!

मुझे जो फूल-सा मन दे दिया है,
बता किस में पिरोना चाहता है!

बनाना चाहता है मुझको कश्ती,
वो ख़ुद पानी का होना चाहता है!

मैं उसका बोझ हल्का कर रहा हूँ,
मगर वो दुख को ढोना चाहता है!

कभी दिखता है, छुपता है कभी तू,
तो तू क्या चाँद होना चाहता है!

हुआ रूमी मेरा एहसास बेघर
ये मिट्टी का बिछौना चाहता है।

आनंद कुमार ‘गौरव’---(चाह स्वर्णिम भोर की )

चाह स्वर्णिम भोर की
आकार बौने जागरण के

प्रावधानों की उलझती
भीड़ जीवन हो गई है


कृत्य काले दृश्य उजले
देह भस्मीली दिशा है
नृत्य बेड़ी में लपेटे
घूमती फिरती ऋचा है

पीर दूजों की चुराती
मानवी रुत सो गई है


नींद ओढ़े बिजलियाँ हैं
रतजगे पर तितलियाँ हैं
अब स्वयँ को पूजने की
आरती हैं तालियाँ हैं

जो धरा पूजे सजाए
वह जवानी खो गई है


हैं पराजित खोज सारी
गीत स्वर मृदु सोच सारी
अब सुगंधों से विमुख हैं
मूर्छित हैं फूल क्यारी

सद सुधा आवाहना
बेहद ज़रूरी हो गई है

ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'---(जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र)

जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
पर्दा-ए-राज़ भी है पर्दा-दर-ए-राज़ भी है

हम-नफ़स आग न लग जाए कहीं महफ़िल में
शोला-ए-साज़ भी है शोला-ए-आवाज़ भी है

यूँ भी होता है मदावा-ए-ग़म-ए-महरूमी
जब्र-ए-सय्याद भी है हसरत-ए-परवाज़ भी है

मेरे अफ़कार की रानाइयाँ तेरे दम से
मेरी आवाज़ में शामिल तेरी आवाज़ भी है

ज़िंदगी ज़ौक़-ए-नुमू ज़ौक़-ए-तलब ज़ौक़-ए-सफ़र
अंजुमन-साज़ भी है गर्म-ए-तग-ओ-ताज़ भी है

मेरे अफ़्कार ओ ख़यालात में सारी 'ताबाँ'
हुस्न-ए-महफ़िल भी है रानाई-ए-शीराज़ भी है

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'--(मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी )



मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी
ज़माने वालों की मुझपे ही है नज़र फिर भी

मैं उसके हुस्न की तारीफ़ कर के हार गया
लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी

फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ क्योंकर
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी

फ़रिश्ता लाख इबादत करे फ़रिश्ता है
गुनाह लाख करे, है बशर, बशर फिर भी

ख़बर है मुल्के - अदम से वो आ नहीं सकते
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी

पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी

'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालामाल तो है
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'---(गुज़री है रात कैसे सबसे कहेंगी आँखें)

गुज़री है रात कैसे सबसे कहेंगी आँखें
शरमा के ख़ुद से ख़ुद ही यारों झुकेंगी आँखें

ओ यार मेरे मुझको तस्वीर अपनी दे जा
तन्हाइयों में उससे बातें करेंगी आँखें

उसने कहा था मुझसे परदेस जाने वाले
जब तक न आएगा तू रस्ता तकेंगी आँखें

मन में रहेगा मेरे बस प्यार का उजाला
हर राह ज़िन्दगी की रोशन करेंगी आँखें

होठों की मेरे कलियाँ कब तक नहीं खिलेंगी
अश्के लहू से आखिर कब तक रचेंगी आँखें

सुख-दुःख हैं इसके पहलू ये ज़िन्दगी है सिक्का
हालात जिन्दगी के खुद ही करेंगी आँखें

तू भी 'रक़ीब' सो जा होने को है सवेरा
वरना हथेली दिन भर मलती रहेंगी आँखें

ज़फ़र' इक़बाल---(ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए)

ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
ये तमाशा अब सर-ए-बाज़ार होना चाहिए

ख़्वाब की ताबीर पर इसरार है जिन को अभी
पहले उन को ख़्वाब से बेदार होना चाहिए

डूब कर मरना भी उसलूब-ए-मोहब्बत हो तो हो
वो जो दरिया है तो उस को पार होना चाहिए

अब वही करने लगे दीदार से आगे की बात
जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए

बात पूरी है अधूरी चाहिए ऐ जान-ए-जाँ
काम आसाँ है इसे दुश्वार होना चाहिए

दोस्ती के नाम पर कीजे न क्यूँकर दुश्मनी
कुछ न कुछ आख़िर तरीक़-ए-कार होना चाहिए

झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए

काका हाथरसी---(सारे जहाँ से अच्छा)


सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह गड़ेरिया हमारा

सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं
वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका
तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका
इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते
लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते
बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की
मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की
बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है
ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है
स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'--(ज़िन्दगी तेरी कहानी भी कहानी है कोई)

ज़िन्दगी तेरी कहानी भी कहानी है कोई
तुझपे आई है मगर ये भी जवानी है कोई

मैंने तो मान लिया तुझको सभी कुछ अपना
ये बता दे तेरा दिलबर तेरा जानी है कोई

अपने किरदार से औरों की बना दे पहले
बात बिगड़ी हुई अपनी जो बनानी है कोई

अस्थियाँ दे दीं दधीची ने सभी इन्दर को
उससे बढ़कर भला संसार में दानी है कोई

ढूंढता है वो कई रोज से वीरान ज़मीं
क़त्ल करके उसे फिर लाश दबानी है कोई

ले के ख़त उसने कहा हँस के मेरे क़ासिद से
उनका पैगाम तेरे पास जबानी है कोई

तेरा दावा है उसे तुझसे मुहब्बत थी बहुत
क्या तेरे पास मुहब्बत की निशानी है कोई

लिखने वाले मेरी क़िस्मत के बता दे मुझको
मेरी क़िस्मत में भी क्या रूप की रानी है कोई

ये हक़ीक़त है तेरे शे'र तो अच्छे हैं 'रक़ीब'
ये जो शे'रों में रवानी है रवानी है कोई

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'--(लाखों अरमान थे काग़ज़ पे, निकाले कितने)

लाखों अरमान थे काग़ज़ पे, निकाले कितने
ख़ूने-दिल से जो लिखे ख़त वो, संभाले कितने

आपसे हो तो करें, हम से तो होगा न शुमार
उजले दिल कितने यहाँ, और हैं काले, कितने

ख़्वाब दौलत के यूँ ही पूरे नहीं तूने किये
मुँह से मुफ़लिस के भी छीने हैं निवाले कितने

तीरगी में है घिरी ऐसे हयाते-फानी
मुझसे कतरा के निकलते हैं उजाले कितने

शे'रगोई में हूँ मैं अदना सा शायर लेकिन
लफ़्ज़ तनक़ीद के यारों ने उछाले कितने

मुश्किलें रेत की मानिन्द फिसल जाती हैं
अक्ल की चाबी ने वा कर दिए ताले कितने

शे'र तो शे'र हैं पहुँचेंगे सभी रूहों तक
ज़िन्दा हैं ज़ह्न में लोगों के मक़ाले कितने

अब तो मजमूए की तू, शक्ल इन्हें दे दे 'रक़ीब'
तेरी ग़ज़लों को संभालेंगे रिसाले कितने

मधुभूषण शर्मा 'मधुर' ---(लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं)

लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं
वो कुछ तो बूढ़े अरमाँ हैं कुछ शोख़ -से सपने निकले हैं

ऐ रहबर ! अपनी आँख उठा, कुछ देख ज़रा, पहचान ज़रा
ग़ैरों-से जो तुझको लगते हैं वो तेरे अपने निकले हैं

बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं

बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं

जिस हद में हमारे कदमों को कुछ ज़ंजीरों से जकड़ा है
बिन तोड़े उन ज़ंजीरों को उस हद से गुज़रने निकले हैं

हम आज भगत सिंह के जज़्बों को ले कर अपने सीनों में
जो राह दिखाई गांधी ने वो राह परखने निकले हैं

मनमोहन 'तल्ख़'---(बहुत हैं रोज़-ए-सवाब-ओ-गुनाह देखने को )

बहुत हैं रोज़-ए-सवाब-ओ-गुनाह देखने को
के हम हैं ज़िंदगी-ए-बे-पनाह देखने को

अनेगी अब नज़र इंकार सो रूके है सभी
ख़ुद अपनी आँख से अपनी निगाह देखने को

मेरी नवा को जो पाकीज़गी अता कर दे
तरस रहा हूँ वो मासूम चाह देखने को

मैं संग-ए-राह नहीं दिल के इस दोराहे पर
खड़ा हुआ हूँ फ़क़त अपनी राह देखने को

मिला दिया हमें अपनों से शुक्रिया ऐ वक़्त
यही मिले थे हमें यूँ तवाह देखने को

तुनुक-मिज़ाज हैं हम यूँ न रोज़ रोज़ मिलो
बहुत है आओ अगर गाह गाह देखने को

जो मेरे बारे में मुझ से भी मोतबर है कोई
मैं जी रहा हूँ तेरा वो गवाह देखने को

सुन ऐ हमारे सियाह ओ सफ़ेद के मालिक
हम आए हैं वो सफ़ेद ओ सियाह देखने को

तुम आँख तक नहीं मलते मचा हो जब कोहराम
तुम आँख खोलते हो सिर्फ वाह देखने को

वो चुप तो यूँ है कि आगाह जिन को करना था
जिए न लम्हा-ए-यक-इंतिबाह देखने को

ये किस की आह लगी घर नहीं कोई मिलता
हर इक मकान है ख़ुद सब की राह देखने को

खुला के दीद-ए-इबरत निगाह कोई न था
उठी थी यूँ तो हर इक की निगाह देखने को

जो सब की जान का जंजाल ये निबाह है ‘तल्ख़’
मैं सब के साथ हूँ बस वो निबाह देखने को

Thursday, 14 April 2016

माखनलाल चतुर्वेदी--(आज नयन के बँगले में)

आज नयन के बँगले में
संकेत पाहुने आये री सखि!

जी से उठे
कसक पर बैठे
और बेसुधी-
के बन घूमें
युगल-पलक
ले चितवन मीठी,
पथ-पद-चिह्न
चूम, पथ भूले!
दीठ डोरियों पर
माधव को

बार-बार मनुहार थकी मैं
पुतली पर बढ़ता-सा यौवन
ज्वार लुटा न निहार सकी मैं !
दोनों कारागृह पुतली के
सावन की झर लाये री सखि!

आज नयन के बँगले में

नासिर काज़मी--(होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी)


होती है तेरे नाम से वहशत[1] कभी-कभी
बरहम[2]हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी

ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी

तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-ए-आफ़रीन
दिल बन गया है दोस्त की ख़िल्वत कभी-कभी

दिल को कहाँ नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी

जोश-ए-जुनूँ[3] में दर्द की तुग़यानियों[4] के साथ
अश्कों में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी

तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमईन[5] न था
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी-कभी

कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त[6] कभी-कभी

ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मुहब्बत[7]> के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी

शब्दार्थ:

1-↑ चिन्ता
2-↑ बैचेन
3-↑ उन्माद
4-↑ तूफ़ान
5-↑ संतुष्ट
6-↑ जुदाई की रात
7-↑ प्रेम का परित्याग

आनन्दी सहाय शुक्ल----(ऊधो सफ़र बड़ा रेतीला)

ऊधो सफर बड़ा रेतीला ।।
घिस घुटनों तक पाँव रह गए, मरु की दारुण लीला ।।

हर बढ़ते पग के आगे
आड़े आया टीला
गिरते पड़ते पार किया तो
बदन पड़ गया ढीला
चक्रव्यूह टीलों का दुर्धर
ऊपर रवि चमकीला ।

रात न आती चाँद न उगता
केवल दिवस हठीला
रक्तवाहिनी नस में बहता
पावक तरल पनीला
ऊपर आगी नीचे आगी
सब कुछ रत्किम पीला
पड़े-पड़े असहाय देखता गड़ा वक्ष में कीला ।।

फ़िराक़ गोरखपुरी---(मैं होशे-अनादिल हूँ मुश्किल है सँभल जाना)

मैं होशे-अनादिल1 हूँ मुश्किल है सँभल जाना
ऐ बादे-सबा मेरी करवट तो बदल जाना

तक़दीरे-महब्बत हूँ मुश्किल है बदल जाना
सौ बार सँभल कर भी मालूम सँभल जाना

उस आँख की मस्ती हूँ ऐ बादाकशो2 जिसका
उठ कर सरे-मैख़ाना मुमकिन है बदल जाना

अय्यामे-बहारां में दीवानों के तेवर भी
जिस सम्त नज़र उट्ठी आलम का बदल जाना

घनघोर घटाओं में सरशार फ़ज़ाओं में
मख्म़ूर हवाओं में मुश्किल है सँभल जाना

हूँ लग़्जिशे मस्ताना3 मैख़ान-ए-आलम में
बर्के़-निगहे-साक़ी कुछ बच के निकल जाना

इस गुलशने-हस्ती में कम खिलते हैं गुल ऐसे
दुनिया महक उट्ठेगी तुम दिल को मसल जाना

मैं साज़े-हक़ीक़त हूँ सोया हुआ नग़्मा था
था राज़े-निहां कोई परदों से निकल जाना

हूँ नकहते-मस्ताना4 गुलज़ारे महब्बत में
मदहोशी-ए-आलम है पहलू का बदल जाना

मस्ती में लगावट से उस आंख का ये कहना
मैख्‍़वार की नीयत हूँ मुमकिन है बदल जाना

जो तर्ज़े-गज़लगोई मोमिन ने तरह की थी
सद-हैफ़ फ़ि‍राक़ उसका सद-हैफ़ बदल जाना

1- बुलबुल के स्वभाव का। 2. शराब पीनेवाली। 3. मस्ताने की लड़खड़ाहट। 4. मस्ती -भरी महक।