Thursday, 19 November 2015

अजीत सुखदेव---(मयस्सर हो जो लम्हा देखने को )

मयस्सर हो जो लम्हा देखने को
किताबों में है क्या क्या देखने को.

हज़ारों क़द्द-ए-आदम आईने हैं
मगर तरसोगे चेहरा देखने को.

अभी हैं कुछ पुरानी यादगारें
तुम आना शहर मेरा देखने को.

फिर उस के बाद था ख़ामोश पानी
के लोग आए थे दरिया देखने को.

हवा से ही खुलता था अक्सर
मुझे भी इक दरीचा देखने को.

क़यामत का है सन्नाटा फ़ज़ा में
नहीं कोई परिंदा देखने को.

अभी कुछ फूल हैं शाख़ों  पे
मुझे काँटों में उलझा देखने को.

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