Tuesday, 10 November 2015

गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'--(पर्व )

धरती पर उतर आया जैसे सितारों का कारवां
टूटते तारों का उल्कापात सा आभास
आकाश में जाते पटाखों से फूटता प्रकाश
टिमटिमाते दीपों से लगती
झिलमिलाते सितारों की दीप्ति
दूर तक दीपवालियों से नहाई हुई
उज्जवल वीथियाँ
लगती आकाशगंगा सी पगडंडिया
एक अनोखा पर्व
जिसने पैदा कर दिया
पृथ्वी पर एक नया ब्रह्माण्ड
सूर्य, चंद्र और आकाश भी दिग्भ्रमित
सैकडों प्रकाशवर्ष दूर यह कैसा प्रकाश
धरती पर उतर आया आकाश
सितारों को कैसे चुरा लिया पृथ्वी ने मेरे आँगन से
चाँद ने भी सुना कि चुरा लिया है चांदनी को
और अप्रितम सौंदर्य का प्रतिमान बनी है धरा
उसकी चांदनी को ओढे
पीछे पीछे दौड़ा आया क्षितिज के उस पार से सूर्य
किसने किया दर्प चूर उसका
रात में फैला यह अभूतपूर्व उजास
नहीं हो सकता यह चाँद का प्रयास
ओह ! चाँद का प्रतिरूप
धरती का यह अनोखा रूप
पर्वों का लोक पृथ्वी
जहाँ हर ऋतु में नृत्य करती धरा
कभी वासंती, कभी हरीतिमा, कभी श्वेतवसना वसुंधरा
अथक यात्रा में संलग्न धरा
तुम धन्य हो !
अमर रहे
मेरे प्रकाश से कहीं ऊर्जस्वी तुम्हारा यह पर्व
मैं अनंत काल तक दूँगा तुम्हें प्रकाश
चाँद बोला- मैं भी अनंतकाल तक बिखेरूँगा शीतलता
धरा है, तो है हमारा अस्तित्व
हलाहल से भरे रत्नानिधि के आगोश में
नीलवर्ण अस्तित्व
दिनकर के आतप से तप कर
स्वर्णिम बना तुम्हारा अस्तित्व
स्वत्वाधिकार है तुम्हें मनाने का
यह प्रकाश पर्व.

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