Sunday, 17 April 2016

कबीर-(रे दिल गाफिल गफलत मत कर)


रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥

सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,
प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥

सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,
सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥

परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,
टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥

दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,
चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥

ज़फ़र गोरखपुरी--(पल पल जीने की ख़्वाहिश में)

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
सब थे नशात-ए-नफ़ा के पीछे हम ने रंज-ए-ज़रर माँगा

अब तक जो दस्तूर-ए-जुनूँ था हम ने वही मंज़र माँगा
सहरा दिल के बराबर चाहा दरिया आँखों भर माँगा

देखना ये है अपने लहू की कितनी ऊँची है परवाज़
ऐसी तेज़ हवा में हम ने काग़ज़ का इक पर माँगा

अब्र के एहसाँ से बचना था दिल को हरा भी रखना था
हम ने इस पौदे की ख़ातिर मौज-ए-दीदा-ए-तर माँगा

कोई असासा पास नहीं और आँधी हर दिन का मामूल
हम ने भी क्या सोच समझ कर बे-दीवार का घर माँगा

खुला के वो भी तेरी तलब का इक बे-नाम तसलसुल था
दुनिया से जो भी हम ने हालात के ज़ेर-ए-असर माँगा

आरसी प्रसाद सिंह---(जन्मभूमि-जननी)

जन्मभूमि जननी !
पृथ्वी शिर और मुकुट
चन्दन सन्तरिणी
जन्भूमि जननी।
वन-वनमे मृगशावक,
नभमे रवि-शशि दीपक,
हिमगिरिसँ सागर तक
विपुलायत धरणी,
जन्मभूमि जननी।
दिक्-दिक्मे इन्द्रजाल,
नवरसमय आलवाल,
पुष्पित अंचल रसाल,
नन्दन वन सरणी,
जन्म भूमि जननी
शक्ति, ओज, प्राणमयी,
देवी वरदानमयी,
प्रतिपल कल्याणमयी
दिवा अओर रजनी,
जन्मभूमि जननी।

आचार्य सारथी रूमी------(कोई सपना सलोना चाहता है)

कोई सपना सलोना चाहता है,
लिपटकर मुझसे रोना चाहता है!

तू मेरा चैन खोना चाहता है,
तो क्या बेचैन होना चाहता है!

उसे माँ चाँद दिखलाने लगी है,
मगर बच्चा खिलौना चाहता है!

मैं नीली छत के नीचे ख़ुश हुआ तो
वो बारिश में भिगोना चाहता है!

मुझे जो फूल-सा मन दे दिया है,
बता किस में पिरोना चाहता है!

बनाना चाहता है मुझको कश्ती,
वो ख़ुद पानी का होना चाहता है!

मैं उसका बोझ हल्का कर रहा हूँ,
मगर वो दुख को ढोना चाहता है!

कभी दिखता है, छुपता है कभी तू,
तो तू क्या चाँद होना चाहता है!

हुआ रूमी मेरा एहसास बेघर
ये मिट्टी का बिछौना चाहता है।

आनंद कुमार ‘गौरव’---(चाह स्वर्णिम भोर की )

चाह स्वर्णिम भोर की
आकार बौने जागरण के

प्रावधानों की उलझती
भीड़ जीवन हो गई है


कृत्य काले दृश्य उजले
देह भस्मीली दिशा है
नृत्य बेड़ी में लपेटे
घूमती फिरती ऋचा है

पीर दूजों की चुराती
मानवी रुत सो गई है


नींद ओढ़े बिजलियाँ हैं
रतजगे पर तितलियाँ हैं
अब स्वयँ को पूजने की
आरती हैं तालियाँ हैं

जो धरा पूजे सजाए
वह जवानी खो गई है


हैं पराजित खोज सारी
गीत स्वर मृदु सोच सारी
अब सुगंधों से विमुख हैं
मूर्छित हैं फूल क्यारी

सद सुधा आवाहना
बेहद ज़रूरी हो गई है

ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'---(जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र)

जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
पर्दा-ए-राज़ भी है पर्दा-दर-ए-राज़ भी है

हम-नफ़स आग न लग जाए कहीं महफ़िल में
शोला-ए-साज़ भी है शोला-ए-आवाज़ भी है

यूँ भी होता है मदावा-ए-ग़म-ए-महरूमी
जब्र-ए-सय्याद भी है हसरत-ए-परवाज़ भी है

मेरे अफ़कार की रानाइयाँ तेरे दम से
मेरी आवाज़ में शामिल तेरी आवाज़ भी है

ज़िंदगी ज़ौक़-ए-नुमू ज़ौक़-ए-तलब ज़ौक़-ए-सफ़र
अंजुमन-साज़ भी है गर्म-ए-तग-ओ-ताज़ भी है

मेरे अफ़्कार ओ ख़यालात में सारी 'ताबाँ'
हुस्न-ए-महफ़िल भी है रानाई-ए-शीराज़ भी है

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'--(मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी )



मैं हूँ ज़माने की हर शय से बेख़बर फिर भी
ज़माने वालों की मुझपे ही है नज़र फिर भी

मैं उसके हुस्न की तारीफ़ कर के हार गया
लबों पे जारी है उसके अगर मगर फिर भी

फ़रेब खा के भी बदज़न नहीं हुआ क्योंकर
समझता आया है दिल उसको मोतबर फिर भी

फ़रिश्ता लाख इबादत करे फ़रिश्ता है
गुनाह लाख करे, है बशर, बशर फिर भी

ख़बर है मुल्के - अदम से वो आ नहीं सकते
तलाशे-यार है जारी इधर-उधर फिर भी

पता है उसको के इन्सानियत का खूँ होगा
लगाता आग है ज़ालिम नगर-नगर फिर भी

'रक़ीब' इल्म की दौलत से मालामाल तो है
बराए-रिज़्क भटकता है दर-बदर फिर भी

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'---(गुज़री है रात कैसे सबसे कहेंगी आँखें)

गुज़री है रात कैसे सबसे कहेंगी आँखें
शरमा के ख़ुद से ख़ुद ही यारों झुकेंगी आँखें

ओ यार मेरे मुझको तस्वीर अपनी दे जा
तन्हाइयों में उससे बातें करेंगी आँखें

उसने कहा था मुझसे परदेस जाने वाले
जब तक न आएगा तू रस्ता तकेंगी आँखें

मन में रहेगा मेरे बस प्यार का उजाला
हर राह ज़िन्दगी की रोशन करेंगी आँखें

होठों की मेरे कलियाँ कब तक नहीं खिलेंगी
अश्के लहू से आखिर कब तक रचेंगी आँखें

सुख-दुःख हैं इसके पहलू ये ज़िन्दगी है सिक्का
हालात जिन्दगी के खुद ही करेंगी आँखें

तू भी 'रक़ीब' सो जा होने को है सवेरा
वरना हथेली दिन भर मलती रहेंगी आँखें

ज़फ़र' इक़बाल---(ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए)

ख़ामोशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
ये तमाशा अब सर-ए-बाज़ार होना चाहिए

ख़्वाब की ताबीर पर इसरार है जिन को अभी
पहले उन को ख़्वाब से बेदार होना चाहिए

डूब कर मरना भी उसलूब-ए-मोहब्बत हो तो हो
वो जो दरिया है तो उस को पार होना चाहिए

अब वही करने लगे दीदार से आगे की बात
जो कभी कहते थे बस दीदार होना चाहिए

बात पूरी है अधूरी चाहिए ऐ जान-ए-जाँ
काम आसाँ है इसे दुश्वार होना चाहिए

दोस्ती के नाम पर कीजे न क्यूँकर दुश्मनी
कुछ न कुछ आख़िर तरीक़-ए-कार होना चाहिए

झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए

काका हाथरसी---(सारे जहाँ से अच्छा)


सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह गड़ेरिया हमारा

सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं
वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका
तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका
इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते
लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते
बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की
मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की
बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है
ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है
स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'--(ज़िन्दगी तेरी कहानी भी कहानी है कोई)

ज़िन्दगी तेरी कहानी भी कहानी है कोई
तुझपे आई है मगर ये भी जवानी है कोई

मैंने तो मान लिया तुझको सभी कुछ अपना
ये बता दे तेरा दिलबर तेरा जानी है कोई

अपने किरदार से औरों की बना दे पहले
बात बिगड़ी हुई अपनी जो बनानी है कोई

अस्थियाँ दे दीं दधीची ने सभी इन्दर को
उससे बढ़कर भला संसार में दानी है कोई

ढूंढता है वो कई रोज से वीरान ज़मीं
क़त्ल करके उसे फिर लाश दबानी है कोई

ले के ख़त उसने कहा हँस के मेरे क़ासिद से
उनका पैगाम तेरे पास जबानी है कोई

तेरा दावा है उसे तुझसे मुहब्बत थी बहुत
क्या तेरे पास मुहब्बत की निशानी है कोई

लिखने वाले मेरी क़िस्मत के बता दे मुझको
मेरी क़िस्मत में भी क्या रूप की रानी है कोई

ये हक़ीक़त है तेरे शे'र तो अच्छे हैं 'रक़ीब'
ये जो शे'रों में रवानी है रवानी है कोई

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'--(लाखों अरमान थे काग़ज़ पे, निकाले कितने)

लाखों अरमान थे काग़ज़ पे, निकाले कितने
ख़ूने-दिल से जो लिखे ख़त वो, संभाले कितने

आपसे हो तो करें, हम से तो होगा न शुमार
उजले दिल कितने यहाँ, और हैं काले, कितने

ख़्वाब दौलत के यूँ ही पूरे नहीं तूने किये
मुँह से मुफ़लिस के भी छीने हैं निवाले कितने

तीरगी में है घिरी ऐसे हयाते-फानी
मुझसे कतरा के निकलते हैं उजाले कितने

शे'रगोई में हूँ मैं अदना सा शायर लेकिन
लफ़्ज़ तनक़ीद के यारों ने उछाले कितने

मुश्किलें रेत की मानिन्द फिसल जाती हैं
अक्ल की चाबी ने वा कर दिए ताले कितने

शे'र तो शे'र हैं पहुँचेंगे सभी रूहों तक
ज़िन्दा हैं ज़ह्न में लोगों के मक़ाले कितने

अब तो मजमूए की तू, शक्ल इन्हें दे दे 'रक़ीब'
तेरी ग़ज़लों को संभालेंगे रिसाले कितने

मधुभूषण शर्मा 'मधुर' ---(लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं)

लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं
वो कुछ तो बूढ़े अरमाँ हैं कुछ शोख़ -से सपने निकले हैं

ऐ रहबर ! अपनी आँख उठा, कुछ देख ज़रा, पहचान ज़रा
ग़ैरों-से जो तुझको लगते हैं वो तेरे अपने निकले हैं

बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं

बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं

जिस हद में हमारे कदमों को कुछ ज़ंजीरों से जकड़ा है
बिन तोड़े उन ज़ंजीरों को उस हद से गुज़रने निकले हैं

हम आज भगत सिंह के जज़्बों को ले कर अपने सीनों में
जो राह दिखाई गांधी ने वो राह परखने निकले हैं

मनमोहन 'तल्ख़'---(बहुत हैं रोज़-ए-सवाब-ओ-गुनाह देखने को )

बहुत हैं रोज़-ए-सवाब-ओ-गुनाह देखने को
के हम हैं ज़िंदगी-ए-बे-पनाह देखने को

अनेगी अब नज़र इंकार सो रूके है सभी
ख़ुद अपनी आँख से अपनी निगाह देखने को

मेरी नवा को जो पाकीज़गी अता कर दे
तरस रहा हूँ वो मासूम चाह देखने को

मैं संग-ए-राह नहीं दिल के इस दोराहे पर
खड़ा हुआ हूँ फ़क़त अपनी राह देखने को

मिला दिया हमें अपनों से शुक्रिया ऐ वक़्त
यही मिले थे हमें यूँ तवाह देखने को

तुनुक-मिज़ाज हैं हम यूँ न रोज़ रोज़ मिलो
बहुत है आओ अगर गाह गाह देखने को

जो मेरे बारे में मुझ से भी मोतबर है कोई
मैं जी रहा हूँ तेरा वो गवाह देखने को

सुन ऐ हमारे सियाह ओ सफ़ेद के मालिक
हम आए हैं वो सफ़ेद ओ सियाह देखने को

तुम आँख तक नहीं मलते मचा हो जब कोहराम
तुम आँख खोलते हो सिर्फ वाह देखने को

वो चुप तो यूँ है कि आगाह जिन को करना था
जिए न लम्हा-ए-यक-इंतिबाह देखने को

ये किस की आह लगी घर नहीं कोई मिलता
हर इक मकान है ख़ुद सब की राह देखने को

खुला के दीद-ए-इबरत निगाह कोई न था
उठी थी यूँ तो हर इक की निगाह देखने को

जो सब की जान का जंजाल ये निबाह है ‘तल्ख़’
मैं सब के साथ हूँ बस वो निबाह देखने को

Thursday, 14 April 2016

माखनलाल चतुर्वेदी--(आज नयन के बँगले में)

आज नयन के बँगले में
संकेत पाहुने आये री सखि!

जी से उठे
कसक पर बैठे
और बेसुधी-
के बन घूमें
युगल-पलक
ले चितवन मीठी,
पथ-पद-चिह्न
चूम, पथ भूले!
दीठ डोरियों पर
माधव को

बार-बार मनुहार थकी मैं
पुतली पर बढ़ता-सा यौवन
ज्वार लुटा न निहार सकी मैं !
दोनों कारागृह पुतली के
सावन की झर लाये री सखि!

आज नयन के बँगले में

नासिर काज़मी--(होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी)


होती है तेरे नाम से वहशत[1] कभी-कभी
बरहम[2]हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी

ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी

तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-ए-आफ़रीन
दिल बन गया है दोस्त की ख़िल्वत कभी-कभी

दिल को कहाँ नसीब ये तौफ़ीक़-ए-इज़्तिराब
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी

जोश-ए-जुनूँ[3] में दर्द की तुग़यानियों[4] के साथ
अश्कों में ढल गई तेरी सूरत कभी-कभी

तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमईन[5] न था
गुज़री है मुझ पे भी ये क़यामत कभी-कभी

कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फ़ुर्क़त[6] कभी-कभी

ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मुहब्बत[7]> के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी

शब्दार्थ:

1-↑ चिन्ता
2-↑ बैचेन
3-↑ उन्माद
4-↑ तूफ़ान
5-↑ संतुष्ट
6-↑ जुदाई की रात
7-↑ प्रेम का परित्याग

आनन्दी सहाय शुक्ल----(ऊधो सफ़र बड़ा रेतीला)

ऊधो सफर बड़ा रेतीला ।।
घिस घुटनों तक पाँव रह गए, मरु की दारुण लीला ।।

हर बढ़ते पग के आगे
आड़े आया टीला
गिरते पड़ते पार किया तो
बदन पड़ गया ढीला
चक्रव्यूह टीलों का दुर्धर
ऊपर रवि चमकीला ।

रात न आती चाँद न उगता
केवल दिवस हठीला
रक्तवाहिनी नस में बहता
पावक तरल पनीला
ऊपर आगी नीचे आगी
सब कुछ रत्किम पीला
पड़े-पड़े असहाय देखता गड़ा वक्ष में कीला ।।

फ़िराक़ गोरखपुरी---(मैं होशे-अनादिल हूँ मुश्किल है सँभल जाना)

मैं होशे-अनादिल1 हूँ मुश्किल है सँभल जाना
ऐ बादे-सबा मेरी करवट तो बदल जाना

तक़दीरे-महब्बत हूँ मुश्किल है बदल जाना
सौ बार सँभल कर भी मालूम सँभल जाना

उस आँख की मस्ती हूँ ऐ बादाकशो2 जिसका
उठ कर सरे-मैख़ाना मुमकिन है बदल जाना

अय्यामे-बहारां में दीवानों के तेवर भी
जिस सम्त नज़र उट्ठी आलम का बदल जाना

घनघोर घटाओं में सरशार फ़ज़ाओं में
मख्म़ूर हवाओं में मुश्किल है सँभल जाना

हूँ लग़्जिशे मस्ताना3 मैख़ान-ए-आलम में
बर्के़-निगहे-साक़ी कुछ बच के निकल जाना

इस गुलशने-हस्ती में कम खिलते हैं गुल ऐसे
दुनिया महक उट्ठेगी तुम दिल को मसल जाना

मैं साज़े-हक़ीक़त हूँ सोया हुआ नग़्मा था
था राज़े-निहां कोई परदों से निकल जाना

हूँ नकहते-मस्ताना4 गुलज़ारे महब्बत में
मदहोशी-ए-आलम है पहलू का बदल जाना

मस्ती में लगावट से उस आंख का ये कहना
मैख्‍़वार की नीयत हूँ मुमकिन है बदल जाना

जो तर्ज़े-गज़लगोई मोमिन ने तरह की थी
सद-हैफ़ फ़ि‍राक़ उसका सद-हैफ़ बदल जाना

1- बुलबुल के स्वभाव का। 2. शराब पीनेवाली। 3. मस्ताने की लड़खड़ाहट। 4. मस्ती -भरी महक।

कृष्ण बिहारी 'नूर---(वो लब कि जैसे साग़रो-सहबा दिखाई दे )

वो लब कि जैसे साग़रे-सहबा दिखाई दे
जुंबिश जो हो तो जाम छलकता दिखाई दे

उस तश्नालब की नींद न टूटे, खु़दा करे
जिस तश्नालब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे

कहने को उस निगाह के मारे हुए हैं सब
कोई तो उस निगाह का मारा दिखाई दे

दरिया में यूँ तो होते हैं क़तरे-ही-क़तरे सब
क़तरा वही है जिसमें कि दरिया दिखाई दे

खाये न जागने की क़सम वो तो क्या करे
जिसको हर एक ख़्वाब अधूरा दिखाई दे

क्यों आइना कहें उसे, पत्थर न क्यों कहें
जिस आइने में अक्स न उनका दिखाई दे

क्या हुस्न है, जमाल है, क्या रंग-रूप है
वो भीड़ में भी जाये तो तनहा दिखाई दे

फिरता हूँ शहरों-शहरों समेटे हर एक याद
अपना दिखाई दे न पराया दिखाई दे

पूछूँ कि मेरे बाद हुआ उनका हाल क्या
कोई जो उस जनम का शनासा दिखाई दे

कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिये
आँखें जो बंद हों तो वो 'नूर' जलवा दिखाई दे

जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’---(दुखिनी बनी दीन कुटी में कभी)

दुखिनी बनी दीन कुटी में कभी, महलों में कभी महरानी बनी।
बनी फूटती ज्वालामुखी तो कभी, हिमकूट की देवी हिमानी बनी

चमकी बन विद्युत रौद्र कभी, घन आनंद अश्रु कहानी बनी।
सविता ससि स्नेह सोहाग सनी, कभी आग बनी कभी पानी बनी।

भवसिंधु के बुदबुद प्राणियों की तुम्हें शीतल श्वाँसा कहें, कहो तो।
अथवा छलनी बनी अंबर के उर की अभिलाषा कहें, कहो तो।

घुलते हुए चंद्र के प्राण की पीड़ा भरी परिभाषा कहें, कहो तो।
नभ से गिरती नखतावलि के नयनों कि निराशा कहें, कहो तो

अर्जुन कवि--(दोहे)

अर्जुन अनपढ़ आदमी, पढ्यौ न काहू ज्ञान ।
मैंने तो दुनिया पढ़ी, जन-मन लिखूँ निदान ।।1।।

ना कोऊ मानव बुरौ, ब्रासत लाख बलाय।
जो हिन्दू ईसा मियाँ, भेद अनेक दिखाय ।।2।।

बस्यौ आदमी में नहीं, ब्रासत में सैतान ।
अर्जुन सब मिल मारिये, बचै जगत इन्सान ।।3।।

कुदरत की कारीगरी, चलता सकल जहान ।
सब दुनिया वा की बनी, को का करै बखान ।।4।।

रोटी तू छोटी नहीं, तो से बड़ौ न कोय ।
राम नाम तो में बिकै, छोड़ैं सन्त न तोय ।।5।।

हिन्दू तौ हिन्दू जनै, मुस्लिम मुस्लिम जान ।
ना कोऊ मानव जनै, है गौ बाँझ जहान ।।6।।

राज मजब विद्या धनै, घिस गे चारों बाँट ।
मनख न पूरा तुल सका, एक-एक से आँट ।।7।।

राज मजब विद्या धनै, ऊँचे बेईमान ।
भोजन वस्त्र मकान दे, पद नीचौ ईमान ।।8।।

राजा सिंह समान है, चीता मजहब ज्ञान ।
धन बिल्ली-सा छल करै, विद्या बन्दर जान ।।9।।

प्राणदान शक्ती रखै, अर्जुन एक किसान ।
राज मजब विद्या धनै, हैं सब धूरि समान ।।10।।

राम विलास शर्मा--(चांदनी )


चांदी की झीनी चादर सी

फैली है वन पर चांदनी

चांदी का झूठा पानी है

यह माह पूस की चांदनी

खेतों पर ओस-भरा कुहरा

कुहरे पर भीगी चांदनी

आँखों के बादल से आँसू

हँसती है उन पर चांदनी

दुख की दुनिया पर बुनती है

माया के सपने चांदनी

मीठी मुसकान बिछाती है

भीगी पलकों पर चांदनी

लोहे की हथकड़ियों-सा दुख

सपनों सी मीठी चांदनी

लोहे से दुख को काटे क्या

सपनों-सी मीठी चांदनी

यह चांद चुरा कर लाया है

सूरज से अपनी चांदनी

सूरज निकला अब चांद कहाँ

छिप गई लाज से चांदनी

दुख और कर्म का यह जीवन

वह चार दिनों की चांदनी

यह कर्म सूर्य की ज्योति अमर

वाह अंधकार की चांदनी

शाह मुबारक 'आबरू'--(फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए)


फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए
वे आशिक़ी के हाए ज़माने किधर गए.

मिज़ग़ाँ तो तेज़-तर हैं व लेकिन जिगर कहाँ
तरकश तो सब भरे हैं निशाने किधर गए.

कहते थे हम कूँ अब न मिलेंगे किसी के साथ
आशिक़ के दिल कूँ फिर के सताने किधर गए.

जाते रहे पे नाम बताया न कुछ मुझे
पूछूँ मैं किस तरह कि फ़ुलाने किधर गए.

मैं गुम हुआ जो इश्क़ की रह में तो क्या अजब
मजनून ओ कोह-कन से न जाने किधर गए.

प्यारे तुम्हारे प्यार कूँ किस की नज़र लगी
अँखियों सीं वे अँखियों के मिलाने किधर गए.

अब रू-ब-रू है यार नहीं बोलता सो क्यूँ
क़िस्से वो 'आबरू' के बनाने किधर गए.

रामधारी सिंह "दिनकर"---(कलम या कि तलवार)

दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार

अंध कक्षा में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान

कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली

पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे

एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी

जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादलों में बिजली होती, होते दिमाग में गोले

जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार

कबीर---(केहि समुझावौ सब जग अन्धा)


केहि समुझावौ सब जग अन्धा ॥

इक दुइ होयॅं उन्हैं समुझावौं,

सबहि भुलाने पेटके धन्धा ।

पानी घोड पवन असवरवा,

ढरकि परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥

गहिरी नदी अगम बहै धरवा,

खेवन- हार के पडिगा फन्दा ।

घर की वस्तु नजर नहि आवत,

दियना बारिके ढूँढत अन्धा ॥ २॥

लागी आगि सबै बन जरिगा,

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो,

जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा ॥ ३॥

'शोला' अलीगढ़ी---(हुजूम-ए-यास में लेने वो कब ख़बर आया)

हुजूम-ए-यास में लेने वो कब ख़बर आया
अजल न आई तो ग़श किस उमीद पर आया

बिछे हैं कू-ए-सितम-गर में जा-ब-जा ख़ंजर
रग-ए-गुलू का लहू पाँव में उतर आया

दिखाई मर्ग ने क्या क्या बुलंदी ओ पस्ती
चलें ज़मीं के तले आसमाँ नज़र आया

हमेशा अफ़ू तिरा है गुनाह का हामी
हमशो रहम तुझे मेरे हाल पर आया

बुतों में कोई भलाई भी है सिवाए सितम
बुरा हो तेरा दिल ना-सज़ा किधर आया

बनाई बात बिगड़ने ने रोज़-ए-महशर भी
उठे हैं खाक से हम जब वो गोर पर आया

कहाँ की आह ओ बुका बात बन गई ‘शोला’
ज़बाँ के हिलते ही फ़रीयाद में असर आया

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’---(चलना हमारा काम है)


गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।

केदारनाथ पाण्डेय--(चली निराली चाँदनी )

तारों के संग रास रचाती चली निराली चाँदनी॥
वन वन के तरु-तृण से हिलमिल
कोमल कलियों के संग खिल-खिल

जीवन वन में मोद लुटाती सिहर-सिहर कर चाँदनी॥
हँस-हँस उठती नभ में लाली
पात-पात में बजती ताली

नयन-नयन की अतुल प्यास को चली बुझाती चाँदनी॥
धूम मची है वंशी वट पै
उलझे नयन लली की लट पै

अन्तर के तारों को छूकर चली बजाती चाँदनी॥
शरमाई लतिका अब डोली
अलसाई निज घूंघट खोली

मानवती का मान मिटाकर चली सजाती चाँदनी॥
छवि का सघन-वितान तना है
नवल आज अपना सपना है

झूम-झूम मदमाती सी चली नवेली चाँदनी॥
गन्ध अन्ध आकुल तन मन में
कलित-ललित अलि के गुन्जन में

मधुर माधवी के मरन्द में रंग बिछाती चाँदनी॥
पीपल के नव हरित चपल-दल
उमग-उमग पड़ते हिल अविरल

डाल-डाल में बजी बाँसुरी चली जगाती चाँदनी॥
मिलती पादप-प्रिय से लतिका
सावन बनती प्रोषित-पतिका

रोम-रोम में प्रीतम की सुधि चली जगाती चाँदनी॥
अरी चाँदनी!चंदन ले लो
अपने चन्दा के संग खेलो

सुन यह बैन,उतर कर भूपर गले लगाती चाँदनी॥
तारों के संग रास रचाती चली निराली चाँदनी

जमील मज़हरी---(मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की)

मैं सदक़े तुझ पे अदा तेरे मुस्कुराने की
समेटे लेती है रंगीनियाँ ज़माने की

जो ज़ब्त-ए-शौक़ ने बाँधा तिलिस्म-ए-ख़ुद्दारी
शिकायत आप की रुठी हुई अदा ने की

कुछ और जुरअत-ए-दस्त-ए-हवस बढ़ाती है
वो बरहमी जो हो तमहीद मुस्कुराने की

कुछ ऐसा रंग मेरी ज़िंदगी ने पकड़ा था
के इब्तिदा ही से तरकीब थी फ़साने की

जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर
ये क्या कहा के हवा तेज़ है ज़माने की

हवाएँ तुंद हैं और किस क़दर हैं तुंद 'जमील'
अजब नहीं के बदल जाए रुत ज़माने की

अमित कल्ला----(बूढ़े पंखों का सहारा ले)

बूढे पंखों का
सहारा ले
रंग
छिपे पहाडो तक
जा पहुचते

आप ही उत्त्पन
दिलासाओं के संग
सही - सही के
मायनों की दहलीजें
पार कर जाते हैं

हौले से ,
दौड़ते पानी की
रफ्तार माँप
काँच सी पोशाक
भिगो लेते

रंग
मांगे वाक्यों के
प्रतिबिम्बों में समाये
हाशियों को बिखेर ,
धकेलकर क्षितिज की देह

गहरे कोहरे को
मथने
कहीं और
निकल पड़ते ।

कुछ आहट
जरुर लगती है ।

कुमार विजय गुप्त---(जिंदगी यदि पहाड़ है )


जिंदगी यदि पहाड़ है
तो पहाड़ में उॅंचा मस्तक भी होगा
हौसलाभरा सीना भी होगा
श्रृंखला भी होगी लहराते हाथों की

जिंदगी यदि पहाड़
तो फूटता होगा कोई श्रमशील सोता
उतरती होगी कोई स्वच्छ नदी
झरता होगा कोई निष्छल झरना
लेटी होगी कोई शांतचित्त घाटी
और घाटी में चमकती होगी
ऑंख जैसी कोई झील

जिंदगी यदि पहाड़ है
तो झुका हुआ होगा कोई आकाश
पहाड़ को घेरकर बतियाते होंगे
ग्रह... नक्षत्र...चॉंद.... तारे

जिंदगी यदि पहाड़ है
तो किरणें पहुँचती होंगी वहीं पहले
मौसम उतरता होगा वहीं पहले
बादल बरसाता होगा वहीं पहले
हवा भी वहीं गुनगुनाती होगी ऋचाएं

जिंदगी यदि पहाड़ है
तो कोई आबाद जंगल भी होगा
पेड़-पौधों की हरीतिमा भी होगी
दुर्लभ पशु-पंछी भी होंगे
वहीं चर रही होंगी भेंड़-बकरियॉं
सहृदय चरवाहे भी होगें
निष्कलुष जनजातियॉं भी होंगी
वहीं संरक्षित होगी
छल-प्रपंच रहित कोई संस्कृति

जिंदगी यदि पहाड़ है
तो वह टूटता भी होगा
तो वहॉं पत्थर भी होंगे
और पत्थरों में छुपी होगी चिंगारियाँ

जिंदगी यदि वाकई पहाड़ हो
और काटे नहीं कट रहीं हो
तो उसके सबसे उॅंचे शिखर पर
स्थापित कर लीजिये आस्था-भरा कोई मंदिर
फिर देखते रहिये
दुर्गम नहीं रह जायेगा वह पहाड़

जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’--(शहीदों की चिताओं पर)--रचनाकाल : 1916



उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा ।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा ।।

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को ।
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा ।।

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल ।
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा ।।

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़ ।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा ।।

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है ।
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा ।।

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले ।
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा ।।

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे ।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा ।।

अकबर इलाहाबादी--(समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का )

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का

गर शैख़-ओ-बहरमन[1] सुनें अफ़साना किसी का
माबद[2] न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना[3] किसी का

क़ुदरत ने दी है जो तुम्हे चांद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना[4] किसी का

अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़[5] नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का

इशरत[6] जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का

करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौर[7] से अफ़साना किसी का

कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का

हम जान से बेज़ार[8] रहा करते हैं 'अकबर'
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का

शब्दार्थ:

1↑ धर्मोपदेशक
2↑ पूजा का स्थान
3↑ काबा और मंदिर
4↑ अँधेरे भरा कमरा
5↑ बदले में
6↑ धूमधाम
7↑ ध्यान से
8↑ ना-खुश

अमिता प्रजापति---(कविता में )


कितना कुछ कह लेते हैं
कविता में
सोच लेते हैं कितना कुछ

प्रतीकों के गुलदस्तों में
सजा लेते हैं विचारों के फूल

कविता को बांध कर स्केटर्स की तरह
बह लेते हैं हम अपने समय से आगे

वे जो रह गए हैं समय से पीछे
उनका हाथ थाम
साथ हो लेती है कविता

ज़िन्दगी जब बिखरती है माला के दानों-सी फ़र्श पर
कविता हो जाती है काग़ज़ का टुकड़ा
सम्भाल लेती है बिखरे दानों को

दुख और उदासी को हटा देती है
नींद की तरह
ताज़े और ठंडे पानी की तह
हो जाती है कविता

गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'----(पानी पानी पानी)


                                       
                                               (painting by_Edward_Lear_1867)
 पानी पानी पानी,
अमृतधारा सा पानी
बि‍न पानी सब सूना सूना
हर सुख का रस पानी

पावस देख पपीहा बोल
दादुर भी टर्राये
मेह आओ ये मोर बुलाये
बादर घि‍र-घि‍र आये
मेघ बजे नाचे बि‍जुरी
और गाये कोयल रानी।

रुत बरखा की प्रीत सुहानी
भेजा पवन झकोरा
द्रुमदल झूमे फैली सुरभि‍
मेघ बजे घनघोरा
गगन समन्‍दर ले आया
धरती को देने पानी।

बाँध भरे नदि‍या भी छलकीं
खेत उगाये सोना
बाग बगीचे,हरे भरे
धरती पर हरा बि‍छौना
मन हुलसे पुलकि‍त तन झंकृत
खुशी मि‍ली अनजानी।

उपवन कानन ताल तलैया
थे सूखे दि‍ल धड़कें
जाता सावन ज्‍योंही लौटा
सबकी भीगी पलकें

पानी पानी पानी।

Friday, 8 April 2016

जयशंकर प्रसाद---(काली आँखों का अंधकार)


काली आँखों का अंधकार
जब हो जाता है वार पार,
मद पिए अचेतन कलाकार
उन्मीलित करता क्षितित पार-
वह चित्र ! रंग का ले बहार
जिसमे है केवल प्यार प्यार!
केवल स्मृतिमय चाँदनी रात,
तारा किरणों से पुलक गात
मधुपों मुकुलों के चले घात,
आता है चुपके मलय वात,
सपनो के बादल का दुलार.
तब दे जाता है बूँद चार.
तब लहरों- सा उठकर अधीर
तू मधुर व्यथा- सा शून्य चीर,
सूखे किसलय- सा भरा पीर
गिर जा पतझर का पा समीर.
पहने छाती पर तरल हार.
पागल पुकार फिर प्यार-प्यार!

दुष्यंत कुमार--(कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये)



कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.

मयस्सर = उपलब्ध ; मुतमईन = संतुष्ट ; मुनासिब = ठीक

अवनीश सिंह चौहान---(हुआ प्रवासी)


हुआ प्रवासी
गंगावासी
अब
कितना घर का, गाँव का

कॉलेज टॉप
किया ज्यों ही
वह गया गाँव से अमरीका
जाते ही तब
छूट गया सब-
आँचल, राखी, रोली-टीका

बिना आसरे
घर
बूढा बापू
कभी धूप का, छाँव का !

अंतिम सांस
भरी बापू ने
क्रिया-करम को पैसा आया
घर-घर चर्चा
हुई गाँव में -
'क्या खोया, क्या किसने पाया'

समय जुआरी
बैठा है
फड़ पर
सब कुछ उसके दाँव का !

दाम कमाया
नाम कमाया
बड़े दिनों से गाँव न आया
भीतर-बाहर
खोज रही माँ
अपनों में अपनों की छाया

क्या दूर बहुत
अब
हुआ रास्ता
गॉवों से भोगांव का?

ख़ुशबीर सिंह 'शाद'---(बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है )

बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है
वो इक अमल जो शरर को धुआँ बनाता है

न जाने कितनी अज़ीयत से ख़ुद गुज़रता है
ये ज़ख़्म तब कहीं जा कर निशां बनाता है

मैं वो शजर भी कहाँ जो उलझ के सूरज से
मुसाफिरों के लिए साएबाँ बनाता है

तू आसमाँ से कोई बादलों की छत ले आ
बरहना शाख़ पे क्या आशियाँ बनाता है

अजब नसीब सदफ़ का के उस के सीने में
गोहर न होना उसे राइगाँ बनाता है

फ़कत़ मैं रंग ही भरने का काम करता हूँ
ये नक़्श तो कोई दर्द-ए-निहाँ बनाता है

न सोच ‘शाद’ शिकस्ता-परों के बारे में
यही ख़याल-सफ़र को गिराँ बनाता है

अहमद फ़राज़--(तेरे माथे पर कोई, मेरा मुक़द्‍दर देखता)


हर तमाशाई, फ़क़त साहिल से मंज़र देखता।
कौन दरिया को उलटता, कौन गौहर देखता।।

वह तो दुनिया को, मेरी दीवानगी ख़ुश आ गई,
तेरे हाथों में वगरना, पहला पत्‍थर देखता।।

आँख में आँसू जड़े थे, पर सदा तुझको न दी,
इस तवक्को(1) पर कि शायद तू पलट कर देखता।।

मेरी क़िस्मत की लकीरें, मेरे हाथों में न थीं,
तेरे माथे पर कोई, मेरा मुक़द्‍दर देखता।।

ज़िंदगी फैली हुई थी, शामे-हिज्राँ(2) की तरह,
किसको, कितना हौसला था, कौन जी कर देखता।।

डूबने वाला था, और साहिल पे चेहरों का हुजूम,
पल की मौहलत थी, मैं किसको आँख भरकर देखता।।

तू भी दिल को इक लहू की बूँद समझा है 'फ़राज़',
आँख गर होती तो क़तरे में समंदर देखता।।

(1). आशा (2). विरह की साँझ

मिर्ज़ा ग़ालिब---(इश्क़ मुझको नहीं )

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत(1) ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही

क़त्अ(2) कीजे, न तअल्लुक़(3) हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत(4) ही सही

मेरे होने में है क्या रुसवाई(5)
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत(6) ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही

हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैं
ना सही इश्क़, मुसीबत ही सही

हम भी तस्लीम की ख़ू(7) डालेंगे
बेनियाज़ी(8) तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल(9) तो हसरत ही सही
- मिर्ज़ा ग़ालिब

1. उन्माद 2. समाप्त 3. संबंध 4. दुश्मनी 5. बदनामी 6. एकांत 7. आदत 8. उपेक्षा 9. मिलन

मिर्ज़ा ग़ालिब--(ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक)

आह को चाहिए इक उम्र, असर होने तक
कौन जीता है तिरी जुल्फ के सर होने तक

दामे हर मौज में है, हल्क़:-ए-सदक़ाम निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे प' गुहर होने तक

आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ, ख़न-ए-जिगर होने तक

हमने माना, कि तग़ाफुल न करोगे, लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक

आशुतोष द्विवेदी----(यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है ?)

यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है.
मेरी आँखों में तेरी बेग़ुनाही कौन पढ़ता है.

नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब.
लिखी तख्तों पे "छूने की मनाही" कौन पढ़ता है.

जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो.
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है.

ये वो महफिल है, जिसमें शोर करने की रवायत है.
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है.

वो बाहर देखते हैं, और हमें मुफ़लिस समझते हैं.
खुदी जज़्बों पे अपनी बादशाही कौन पढ़ता है.

जो ख़ुशक़िस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं.
लुटे आंगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है.

जगदीश जोशी ‘साधक’---(मैं अपने आप से हूँ महव ए गुफ़्तगू अब तक)

मैं अपने आप से हूँ महव ए गुफ़्तगू अब तक
मेरा ही चेहरा है बस मेरे रूबरू अब तक

न हाथ जामादरी से उठाए वहशत ने
न अपना चाक ए गरेबान हुआ रफ़ू अब तक

जमूद ए कुह्नगी ए ख़ुमकदा, अरे तोबा !
वही है रिन्द, वही मय, वही सुबू अब तक

हुआ ज़माना कि दम भर को बरक़ चमकी थी
कलीम ओ तूर की बाक़ी है गुफ़्तगू अब तक

हुनूज़ मेरे तआक्क़ुब में है ग़म ए दुनिया
हुई है ख़त्म कहाँ मेरी जुस्तजू अब तक

हुजूम ए यास ने कोशिश तो की , मगर न छुटा
खिज़ां के हाथ से दामान ए आरज़ू अब तक

ये किस बगूले के चक्कर में है दिल ए नादाँ
ख़राब ए दस्त बा उन्वान ए जुस्तजू अब तक

जफ़ा ओ ज़ुल्म का अब अपने जायज़ा कर ले
न पूछ मुझ से , वफ़ा क्यूँ है मेरी ख़ू अब तक

बदल चुका है ज़माना मगर ‘साधक’ साहिब
न बदला आपका अंदाज़ ए गुफ़्तगू अब तक

कबीर---(साधो, देखो जग बौराना)

साधो, देखो जग बौराना ।
साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना ।
आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।
पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।
घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।
गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।
बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।
करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।
हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी ।
वह करै जिबह, वो झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।
या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।

कैफ़ी आज़मी---(शोर परिंदों ने यु ही न मचाया होगा)


शोर परिंदों ने यूं ही न मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा

पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएगें जब सर पे न साया होगा

मानिए जश्न-ऐ-बहार ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटो को लहू अपना पिलाया होगा

अपने जंगल से घबरा के उड़े थे जो प्यासे
हर सहरा उनको समंदर नज़र आया होगा

बिजली के तार पे बैठा तनहा पंछी
सोचता है की ये जंगल तो पराया होगा

चन्द्रभान सिंह 'रज'---(कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तरूखीर तो क्या)

कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तरूखीर तो क्या
वो शख्स नजर भर रूक न सका एहसास था दामन-गीर तो क्या

कुछ बनते मिटते दाएरे से इक शक्ल हजारों तस्वीरें
सब नक्श ओ निगार उरूज पे थे आँखें थीं ज़वाल-पज़ीर तो क्या

खुश हूँ की किसी की महफिल में अर्ज़ां थी मता-ए-बे-दारी
अब आँखें हैं बे-ख्वाब तोे क्या अब ख्वाब हैं बे-ताबीर तो क्या

ख्वाहिश के मुसफिर तो अब तक तारीकी-ए-जाँ में चलते हैं
इक दिल के निहाँ-खाने में कहीं जलती है शमा-ए-जमीर तो क्या

सहरा-ए-तमन्ना में जिस के जीने का जवाज ही झोंके हों
उस रेत के जर्रों ने मिल कर इक नाम किया तहरीर तो क्या

लिखता हूँ तो पोरों से दिल तक इक चाँदनी सी छा जाती है
'रज' वो हिलाल-ए-हर्फ कभी हो पाए न माह-ए-मुनीर तो क्या

कमलेश भट्ट 'कमल'---(मुश्किलों से जूझता)

मुश्किलों से जूझता लड़ता रहेगा

आदमी हर हाल में ज़िन्दा रहेगा।

मंज़िलें फिर–फिर पुकारेंगी उसे ही

मंज़िलों की ओर जो बढ़ता रहेगा।

आँधियों का कारवाँ निकले तो निकले

पर दिये का भी सफर चलता रहेगा।

कल भी सब कुछ तो नहीं इतना बुरा था

और कल भी सब नहीं अच्छा रहेगा।

झूठ अपना रंग बदलेगा किसी दिन

सच मगर फिर भी खरा–सच्चा रहेगा।

देखने में झूठ का भी लग रहा है

बोलबाला अन्ततः सच का रहेगा।

कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'---(मानुष जन्म महा दुखदाई)

मानुष जन्म महा दुखदाई ।
सुख नहिं पावत धनी रंक कोउ कोटिन किये उपाई ।
रोग सदन यह तन मल पूरे छन में जात नसाई ॥
आशा चक्र बँधे बिन मारग दिवस रैनि भरमाई ।
पापिनि शापिनि चिन्ता व्यापे घेरि डसत नित आई ।
विषै से सुखत देह और जग कन्टक सम दरसाई ॥
मातु पिता दारा सुत दुहिता मित्र बन्धु गण भाई ।
खान पान लागत नहिं नीको प्रिय अप्रिय भय जाई ॥
हरि स्तुति के सार एकही माया जाल छोड़ाई ।
भजहु ‘सरोज’ नन्द नन्दन पद त्यागि कपट कुटिलाई ॥

तिलोक चंद 'महरूम' ---(होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम )

होते हैं ख़ुश किसी की सितम-रानियों से हम
वक़्फ़-ए-बला हैं अपनी ही नादानियों से हम

किस मुँह से जा के शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा करें
मरते हैं और उन की पशेमानियों से हम

मीरास-ए-दश्त-ओ-कोह में फ़रहाद ओ क़ैस की
उल्फ़त को पूछते हैं बयाबानियों से हम

घर बैठे सैर होती है अर्ज़ ओ समा की रोज़
महव-ए-सफ़र हैं तबआ की जुलानियों से हम

क्यूँकर बग़ैर जलवा-ए-हैरत तराज़-ए-हुस्न
पाएँ नजात दिल की परेशानियों से हम

ऐ बानी-ए-जफ़ा तेरा एहसाँ है इस में क्या
जीते हैं गर तो अपनी गिराँ-जानियों से हम