Thursday, 14 April 2016

कबीर---(केहि समुझावौ सब जग अन्धा)


केहि समुझावौ सब जग अन्धा ॥

इक दुइ होयॅं उन्हैं समुझावौं,

सबहि भुलाने पेटके धन्धा ।

पानी घोड पवन असवरवा,

ढरकि परै जस ओसक बुन्दा ॥ १॥

गहिरी नदी अगम बहै धरवा,

खेवन- हार के पडिगा फन्दा ।

घर की वस्तु नजर नहि आवत,

दियना बारिके ढूँढत अन्धा ॥ २॥

लागी आगि सबै बन जरिगा,

बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो,

जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा ॥ ३॥

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