Wednesday, 19 August 2015

कुंवर प्रतापचंद्र ‘आज़ाद’---(क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे)

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बेमेह्र कि रोने के बहाने माँगे

अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे

यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए
अब यही तर्के-तल्लुक़ के बहाने माँगे

हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
खल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे

ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनेख़ानेमाँगे

दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए- ‘आज़ाद
 मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे



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