Tuesday, 29 March 2016

धीरेन्द्र सिंह काफ़िर ---(दस्त-ऐ-ज़मील-ऐ-तरबखेज मेरी माँ के थे)

दस्त-ऐ-ज़मील-ऐ-तरबखेज[1] मेरी माँ के थे
उन हरेक पल वो साथ जो मेरे इम्तहाँ के थे

हरेक सिम्त[2] समेट दी कि हो जाऊँ कामराँ[3]
वगरना कल तक सब कहाँ के हम कहाँ के थे

अहल-ऐ-जहाँ[4]ओ ये पेंच-ओ-ख़म[5] का दम
मुझे गिराने वाले सब मेरे ही कारवाँ[6] के थे

जब तक वो न थी करीब, तो सब थे रकीब
हम तब तक उम्मीदवार खुर-ऐ-गलताँ[7] के थे

आज तो दे रखीं हैं सौ दुकानें किराए पर
कल तक ख़रीदार खुद हम अपनी दुकाँ के थे

शब्दार्थ:

1- ↑ खुशियाँ देने वाले कोमल हाथ
2- ↑ दिशा
3- ↑ सफल
4- ↑ दुनियावाले
5- ↑ दाँव-पेंच
6- ↑ जुलूस
7- ↑ डूबता सूरज

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