Sunday, 20 March 2016

कैफ़ी आज़मी---(कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतशार-सा है )

कभी जमूद[1] कभी सिर्फ़ इंतशार[2]-सा है ।
जहाँ को अपनी तबाही का इंतज़ार-सा है ।
मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़जा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार-सा है ।
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामने-यज़्दाँ[3] भी तार-तार-सा है ।
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिके-कोनैन[4] शर्मसार-सा[5] है ।
तमाम जिस्म है बेदार[6], फ़िक्र ख़ाबीदा[7]
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार-सा है ।
सब अपने पाँव पे रख-रखके पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश[8] पे हर आदमी सवार-सा है ।
जिसे पुकारिए मिलता है इक खंडहर-से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी[9] का इश्तहार-सा है ।
हुई तो कैसे बियाबाँ[10] में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरा मज़ार-सा है ।
कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले
उस इन्क़लाब का, जो आज तक उधार-सा है ।
शब्दार्थ:
1↑ गतिरोध
2↑ अस्त-व्यस्त
3↑ ख़ुदा का दामन
4↑ सृष्टि का निर्माता
5↑ शर्मिन्दा-सा
6↑ जागृत
7↑ सोई हुई
8↑ कंधा
9↑ अतीत
10↑ जंगल

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